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जैनशासन
तत्त्वमे उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाग स्वभाव पाया जाता है । ऐसी कोर्ड सदात्मक वस्तु नही है, जो केवल स्थितिशील ही हो तथा उत्पत्ति और विनागके चक्रसे वहिर्भूत हो । जैन सूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने लिखा है - " उत्पादव्ययधीव्ययुक्त सत्" । इस विषय मे पञ्चाध्यायीकार लिखते है कि- 'तत्त्वका लक्षण सत् है । अभेद दृष्टिसे तत्त्वको सत्स्वरूप कहना होगा। यह सत् स्वत सिद्ध है - इसका अस्तित्व अन्य वस्तुके अवलम्वनकी अपेक्षा नही करता । इसी कारण, यह तत्त्व अनादि निधन है - स्वसहाय और विकल्प - रहित भी है ।
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साधारण दृष्टिसे एक ही वस्तुमे उत्पत्ति-स्थिति-व्ययका कथन असम्भव बातोका भाण्डार प्रतीत होता । किन्तु सूक्ष्मविचार भूमका क्षणमात्रमे उन्मूलन किये बिना न रहेगा। यदि 'आम' को पदार्थ ( तत्त्व ) का स्थानापन्न समझा जाए, तो कहना होगा कि कच्चे आममे पकनेके समय हरेपनका विनाश हुआ, पीले रगवाली पकी अवस्थाका उसी समय प्रादुर्भाव हुआ और इन दोनो अवस्थाओको स्वीकार करनेवाले आमका स्थायित्व - श्रव्यत्व बना रहा। यह तो उस 'सत्' के दर्शनकी दृष्टिका भेद है जो एक सत् अथवा तत्त्व त्रिविध रूपसे ज्ञान-गोचर बनता है । आमकी पीली अवस्थापर दृष्टि डालनेसे सत्का उत्पाद हमारे दृष्टि- बिन्दुमे प्रधान बनता है । विनाश होनेवाले हरे रगको लक्ष्य - गोचर बनानेपर सत्का विनाश हमें दिखता है | आम - सामान्यपर दृष्टि डालनेपर न तो उत्पाद मालूम होता है और न व्यय । इस आमके समान विश्वके सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय तथा धौव्य युक्त है । तार्किक समन्तभद्र ने इसीलिए तत्त्वको पूर्वोक्त त्रिविधताओसे समन्वित स्वीकार किया है - " तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकम् ।”
१ तत्त्वार्थसूत्र ५ । ३० ।
२ " तत्त्व सल्लाक्षणिक सन्मान वा यतः स्वतः सिद्धम् ।
स्वसहायं
निर्विकल्पं च ॥"
तस्मादनादिनिधनं ३ आप्तमीमांसा श्लो० ६० ।