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जैनशासन
धर्म के विपयमे नेहरूजी के विचारोसे कितनी ही मतभिन्नता क्यो न हो, किन्तु निष्पक्ष विचारक व्यक्तिकी आत्मा उनके द्वारा आन्तरिक तथा सत्यता से पूर्ण विचारधाराका समर्थन किए बिना न रहेगा ।
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देखिए, मृत्युकी गोद में जाते-जाते पजाब केसरी लाला लाजपतराय कितनी सजीव और अमर बात कह गए है - "क्या मुसीवतो, विषमताओ और क्रूग्ताओसे परिपूर्णं यह जगत् एक भद्र परमात्माकी कृति हो सकता है ? जब कि हजारो मस्तिष्कहीन, विचार तथा विवेकशून्य, अनैतिक, निर्दय, अत्याचारी, जालिम, लुटेरे, स्वार्थी मनुष्य विलासिताका जीवन विता रहे हे और अपने अधीन व्यक्तियोको हर प्रकारसे अपमानित, पद-दलित करते है और मिट्टीमे मिलाते है, इतना ही नही, चिढाते भी है । ये दुखी लोग अवर्णनीय कप्ट, घृणा तथा निर्दयतापूर्ण अपमानसहित जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें जीवनके लिए अत्यन्त आवश्यक वस्तुएँ भी नही मिल पाती । भला, ये सब विषमताएँ क्यो है ? क्या ये न्यायशील और ईमानदार ईश्वरके कार्य हो सकते है ? ।" आगे चलकर पञ्जाब- केसरी कहते है- 'मुझे बताओ - तुम्हारा ईश्वर कहा है । मैं तो इस निस्सार जगत्मे उसका कोई भी निशान नही
पाता।"
१ “Can this world full of miseries, mequalities, crueli ties & barbarities be the handiwork of a good God, while hundreds and thousands of wicked people, people without brains, without head or heart, immoral and cruel people, tyrant, oppressors, exploiters and selfish people living in luxury, and in every possible way insulting trampling under foot, grinding into dust and also mocking their victims, these latter are lives of untold misery, degradation, disgrace of sheer want? They