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________________ ३२ जैनशासन अन्य होगा, उसका भी निर्माता कोई अन्य मानना पडेगा । इस प्रकार वढनेवाली अनवस्थाके निवारणार्थ यदि ईश्वरका सद्भाव बिना अन्य कर्ताके स्वीकार किया जाता है, तो यही नियम जगत्‌के विषयमे भी मानना होगा । कमसे कम ऐसी वात तो नही स्वीकार की जा सकती कि परम आत्मा मनुष्य या पशुके पेटमे अपनी शक्ति द्वारा मल-मूत्रादिका निर्माण करता रहता है । यदि भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाके द्वारा पेटमें उपरोक्त कार्य होता है, ऐसा अगीकार करनेपर यह धारणा, कि प्रत्येक पदार्थका निर्माता होना ही चाहिए, धराशायी हो जाती है । प्रभुकी महिमाका वर्णन करते हुए राम भक्त कवि तुलसी कहते है - 'सीयराममय सब जग जानी' दूसरा कवि कहता है- "जले विष्णुः स्थले विष्णुः श्राकाशे विष्णुरेव च " - इन भक्तजनोकी दृष्टिमे विश्वके कण-कणमे एक अखण्ड परमात्माका वास है। सुननेमे यह बात बडी मधुर मालूम होती है, किन्तु तर्ककी कसौटीपर नही टिकती । यदि सम्पूर्ण विश्वमे परमात्मा ठसाठस भरा हुआ हो तो उसमे उत्पाद-व्यय गमनागमन आदि क्रियाओका पूर्णतया अभाव होगा। क्योकि, व्यापक वस्तुमें परिस्पन्दन रूप क्रियाका सद्भाव नही हो सकता । अत अनादिसे प्रवाहित जड - चेतनके प्राकृतिक सयोग-वियोग रूप इस जगत्के पदार्थोंमे स्वयं सयुक्त - वियुक्त होनेकी सामर्थ्य है, तब विश्व - विधाता नामक अन्य शक्तिकी कल्पना करना तर्कसगत नही है । वैज्ञानिक जूलियन हक्सले कहता है - " इस विश्वपर शासन करनेवाला कौन या क्या है ? जहातक हमारी दृष्टि जाती है, वहातक हम यही देखते है कि विश्वका नियन्त्रण स्वय अपनी ही शक्तिसे हो रहा है। यथार्थमे देश और उसके शासककी उपमा इस विश्वके विषयमे लगाना मिथ्या है।" ? Who and what rules the Universe? So far as you can see, it rules itself and indeed the whole analogy with a country and its ruler is false.-Julian Huxley.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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