________________
૪૫૪
जैनशासन
द्वारा जगत्को अभय और आनन्द प्राप्त हुआ है । अत पराधीन भारत उत्पन्न विषम समस्याओका उपचार भारतीय सन्तोके द्वारा चिर परीक्षित 'करुणामूलक तथा न्याय- समर्थित योजनाओंका अगीकार करना है । जिस शैलीपर गुलावका पोषण होता है, उस पद्धति द्वारा कमलका विकास नही होता, इसी प्रकार भौतिकवादके उपासक पश्चिमकी समस्याओका उपाय आध्यात्मिकता के आराधक भारतके लिए अपाय तथा आपत्तिप्रद होगा | भारतोद्धारकी अनेक योजनाओमें जीवघातको भी, पश्चिमकी पद्धतिपर उपयुक्त माना जाने लगा है, यह वात परिणाममे अमंगलको प्रदान करेगी। अहिंसानुप्राणित प्रवृत्तियोके द्वारा ही वास्तविक कल्याण होगा। जो जो सामाजिक, लौकिक, राजनैतिक आर्थिक समस्याएँ मूलत हिंसामयी है, उनके द्वारा शाश्वतिक अभ्युदयकी उपलब्धि कभी भी नही हो सकती है। जैन तीर्थकरोने अपनी महान् साधनाके द्वारा यह सत्य प्राप्त किया कि आत्माका पोषण वस्तुत तब ही होगा, जब कि यह उनकी अपनी लालसाओ और वासनाओकी अमर्यादित वृद्धिको रोककर चक्षुओका गोषण करेगा। भोग और विषयोकी मोहनी धूलिसे अपने ज्ञान चक्षुओका रक्षण करना चाहिए। जिस अन्त करणमे इस जगत्की क्षणिकता प्रतिष्ठित रहेगी, वह मानव अपथमे प्रवृत्ति नही करेगा । ऐसे' आत्मवान् पुरुषाथियो के हाथमे सभी शास्त्र मगलमय विश्व निर्माणमे सहायक होते है । अस्वस्थ, प्रतारित और पीड़ित मानवताका कल्याण प्राणीमात्रके / प्रति बन्धुत्वका व्यवहार और पुण्याचरण करनेमें है । इसके द्वारा समन्तभद्र ससारका निर्माण हो सकता है । एक महान् आचार्य का उपदेश है
'धम्मं आयरह सदा, पावं दूरेण परिहरह |
1
१ सदा धर्मका पालन करो और पापका पूर्ण परित्याग करो ।