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जैनशासन
रची है। इस जीवनके द्वारा ही आत्मा सर्वोत्कृष्ट विकासको प्राप्त कर सकती है। कबीरदासने कितना सुन्दर लिखा है
"मनुज जनम दुरलभ अहै, होय न दूजी बार।
पक्का फल जो गिर गया, फेर न लाग डार॥" वैभव, विद्या, प्रभाव आदिके अभिमानमे मस्त हो यह प्राणी अपनेको अजर-अमर मान अपने जीवनको बीतती हुई स्वर्ण-घड़ियोकी महत्तापर बहुत कम ध्यान देता है। वह सोचता है कि हमारे जीवनकी आनन्दगगा अविच्छिन्न रूपसे वहती ही रहेगी, किन्तु वह इस सत्यका दर्शन करनेसे अपनी आखोको मीच लेता है कि परिवर्तनके प्रचण्ड प्रहारसे वचना किसीके भी वशकी वात नही है। महाभारतमे एक सुन्दर कथा है-पाचो पाण्डव तृषित हो एक सरोवरपर पानी पीनेके लिए पहुंचे। उस जलाशयके समीप निवास करनेवाली दिव्यात्माने अपनी शंकाओका उत्तर देनेके पश्चात् ही जल पीनेकी अनुज्ञा दी। प्रश्न यह था कि जगत्में सबसे बडी आश्चर्यकारी वात कौन-सी है? भीम, अर्जुन आदि भाइयोके उत्तरोसे जब सन्तोष न हुआ, तव अन्तमे धर्मराज युधिष्ठिरने कहा
___"अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् ।
__शेषा जीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥
इस सम्बन्धमे गुणभद्राचार्यकी उक्ति अन्तस्तलको महान् आलोक प्रदान करती है। वे कहते है-अरे, यह आत्मा निद्रावस्था द्वारा अपनेमे मृत्युकी आशकाको उत्पन्न करता है और जागनेपर जीवनके आनन्दकी झलक दिखाता है। जब यह जीवन-मरणका खेल आत्माको प्रतिदिनकी लीला है, तब भला, यह आत्मा इस शरीरमे कितने काल तक ठहरेगा? १ प्रतिदिन प्राणी मरकर यम-मन्दिर में पहुंचते रहते है। यह बड़े
आश्चर्यकी बात है कि शेष व्यक्ति जीवनकी कामना करते है- (मानो यमराज उनपर दया कर देगा!)। २ "प्रसुप्तो मरणाशंकां प्रबुद्धो जीवितोत्सवम्।
प्रत्यहं जनयत्येष तिष्ठेत् कार्य कियच्चिरम् ॥२२॥"