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धर्म और उसकी आवश्यकता
धर्म और उसकी आवश्यकता
साम्यवाद सिद्धान्तका प्रतिष्ठापक तथा रूतका भाग्य-विधाता लेनिन धर्मकी ओटमे हुए अत्याचारोंसे व्यथित हो कहता है कि विश्व - कल्याणके लिए धर्मकी कोई आवश्यकता नही है। उसके प्रभावमे आये हुए व्यक्ति धर्मको उस अफीमकी गोलीके समान मानते हैं, जिसे खाकर कोई अफीमची क्षण-भरके लिए अपनेमे स्फूर्ति और शक्तिका अनुभव करता है। इसी प्रकार उनकी दृष्टिसे धर्म भी कृत्रिम आनन्द अथवा विशिष्ट शान्ति प्रदान करता है ।
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यह दुर्भाग्यकी बात है कि इन असन्तुष्ट व्यक्तियोको वैज्ञानिक धर्मका परिचय नही मिला, अन्यथा ये सत्यान्वेपी उस धर्मकी प्राण-पणसे आरावना किये बिना न रहते। जिन्होने इस महान् सावनाके सावन - भूत मनुष्यजन्मकी महत्ताको विस्तृतकर अपनी आकाक्षाओकी पूर्तिको ही नर-जन्मका ध्येय समझा है, वे गहरे भूममे फसे हुए है और उन्हें इस विश्वकी वास्तविक स्थितिका बोब नही प्रतीत होता ।
सम्राट् अमोघवर्ष अपने अनुभवके आधारपर मनुष्य जन्मको ही असाधारण महत्त्वको वस्तु बताते है । अपनी अनुपम कृति प्रश्नोत्तररत्न - मालिकामे उन्होने कितनी उद्बोधक बात लिखी है
"कि दुर्लभं ? नृजन्म, प्राप्येदं भवति किं च कर्तव्यम् ? आत्महितमहितसंगत्यागो रागश्च गुरुवचने ॥”
इस मानव जीवनकी महत्तापर प्राय सभी सन्तोने अमर गायाएँ
"Religion, to his master, Marx, had been the "Opium of the people" and to Lenin it was "a kind of spiritual cocaine in which the slaves of capital drown their human perception and their demands for any life worthy of a human being. '
--Fulop Miller, Mind and Face of Bolshevism p. 78.