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________________ कल्याणपथ ४४१ हुआ। यह दृश्य में नही देख सका। मैं वेचैन और व्याकुल हो गया। मै उस दृश्यको भी नही विस्मृत कर सकता हूँ। मुझे बुद्धदेवकी कथा याद आई। किन्तु मुझे वह कार्य मेरी सामर्थ्यके परे प्रतीत हुआ। मेरे विचार जो पहले थे, वे आज भी उसी प्रकार है। मेरी अनवरत यही प्रार्थना है, कि इस भूतल पर ऐसी महान् आत्माका नर अथवा नारीके रूपमे आवि र्भाव हो, जो मन्दिरकी हिसा वन्द करके उसे पवित्र कर सके। यह वडी विचित्र वात है, कि इतना विज्ञ, बुद्धिमान्, त्यागी तथा भावुक वग-प्रान्त इस वलिदानको सहन करता है? धर्मके नाम पर कालीके समक्ष किया जानेवाला भीषण जीववध देखकर मेरे हृदयमे बगालियोके जीवनको जाननेकी इच्छा जागृत हुई।" महात्माजीके पूर्वोक्त उद्गारोसे यह स्पप्ट है कि वे जीववध और खासकर धर्मके नाम पर बलिदान देखकर वर्णनातीत व्यथाको अनुभव करते थे, किन्तु देशके परतत्र होनेके कारण वे अपनी सीमित-सामर्थ्यसे भी अपरिचित न थे, इसीसे वे अपने परमाराध्य परमेश्वर से प्रार्थना कर समर्थ करुणाके प्रसारमे उद्यत आत्माके आविर्भावकी आकाक्षा करते थे। सौभाग्यकी बात है, कि आजका शासन सूत्र उन लोगोके हाथमे है, जो वापूको खूब जानते थे, मानते थे, और जो आज बापूकी पूजा करते है, और जगत्मे, उनकी पूजा-प्रचारको परम कर्त्तव्य बना रहे है। यदि यह I hold today the same opinion as I held then It is my constant prayer that there may be born on earth some great spirit' man or woman, who will purify the temple How is it that Bengal with all its knowledge, intelligence sacrifice and emotion tolerates this slaughter? The terrible sacrifice offered to Kali in the name of religion enhanced my desire to know Bengal life" . -Vide-Gandhiji's Autobiography.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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