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जैनशासन
धोकर निर्मल नही किया जायगा, तब तक बाह्य योजनाओसे सौख्यकी सृप्टि स्वप्न साम्माज्य सदृश सुखकर समझी जायगी। प्रत्येकके हृदय मदिरमे दयाके देवता की मगलमय आराधना जब तक नहीं होगी, तब तक निराकुल और निरापद सुखकी साधन-सामग्नी नहीं प्राप्त हो सकती। अन्त करणका घाव बाहरी मरहम पट्टीसे जैसे आराम नही हो सकता है, वैसे ही क्रूरतापूर्ण वृत्तिके कारण जो जीव पापाचरण जानकर या विना जाने करता है, उसका परिमार्जन किए बिना, विश्वशान्तिकी योजनाओ, प्रस्तावो आदिसे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। 'अहो रूपम्, अहो ध्वनिः' के आदर्श पर पारस्परिक गौरवके आदान-प्रदान द्वाराभी जगत्की जटिल समस्याये नही सुलझ सकती है। बाहरी सोडा, सावुन आदि द्रव्योसे वस्त्रकी मलिनता दूर की जाती है, किन्तु हृदयकी मलिनताको धोनेके लिए करुणा-वादके 'अमृत-सर'मे गहरी डुबकी लगाए विना अन्य उपाय नहीं है, यह देखकर आश्चर्य होता है कि महात्मा गाधीके निधनके बाद सार्वजनिक स्वार्थसे सम्बन्धित व्यक्ति जितने बार बापूका नाम लिया करते है, उतना शायद ही परमेश्वरका नाम स्मरण करते हो। यदि इनकी वापूके प्रति ऐसी ही ममता और श्रद्धाका भाव है, तो क्यो नही बापूके करुणा प्रसारके पुण्य कार्यमे आगे आते है ? कलकत्तेके कालीमन्दिरमे देवीके आगे रक्तकी वैतरिणी देखकर गाधीजीकी आत्मा आकुलित हो गई थी, और उनका करुणापूर्ण अन्त करण रो पड़ा था। अपनी अन्तर्वेदनाको व्यक्त करते हुए बापू अपनी आत्मकथामे लिखते है कि "जब हम मन्दिरमे पहुचे, तब खूनकी बहती हुई नदीसे हमारा स्वागत
"Iye passed on to the temple We were greeted by livers of blood. I could not bear to standthere I was exasperated and restless. I have never forgotten that sight I thought of the story of BUDDHA but I also saw that the task was beyond my capacity.