________________
विश्वसमस्याएं और जैनधर्म
४१५
वताया है, कि "This world is a bridge, pass thou over it, but build not upon it !' 'यह जगत् एक पुलके सदृश है। उसपर होकर तुम चले जाओ, इसपर मकान मत वाघो'-उसे विस्मृत करनेमे ही आजका यूरोप, अमेरिका अपनेको कृतार्थ मान रहा है। धनसचय करना ही उसका एकमात्र कार्य है । यही उसका ईश्वर है, भगवान् है, परमात्मा है। धनके द्वारा गान्ति प्राप्त करना असम्भव है। महर्षि गुणभद्र कहते है
"रे धनेन्धनसंभारं प्रक्षिप्याशाहुताशने । ज्वलन्त मन्यते भान्तः शान्तं संधुक्षणे क्षणे ॥"
-आत्मानुशासन ८५॥ 'अरे भाई, आगा-अग्निमे धनरूपी ईन्धन डालकर जलनेके क्षण प्रदीप्त देखते हुए भमवग तुम उसे गान्त हुआ समझते हो।'
भगवान् कुन्युनाथने चक्रवर्तीके महान् साम्राज्यका परित्याग किया था, और वे विषय-मुखसे विमुख हुए थे। इस विषयमे स्वामी समन्तभद्र वडी महत्त्वपूर्ण वात बताते है__"तृष्णाचिषः परिवहन्ति न शान्तिरासा
मिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेव । स्थित्यव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान्विषयसौख्यपराङमुखोऽभूत् ॥"
-वृ० स्वयम्भू० ८२ । 'तृष्णाग्नि जीवोको सदा जलाती है । इन्द्रियोके प्रिय भोगोके द्वारा इन ज्वालाओकी गान्ति न होकर वृद्धि होती है। यह वात कुन्थुनाथ स्वामीने अनुभव द्वारा निश्चित की, तव उन्होने गरीरके सतापका निवारण करनेमे निमित्त रूप विपय-सुखोके प्रति विमुखवृत्ति अगीकार की , कारण वे आत्मवान् थे। आजका आत्मविहीन पश्चिम तथा उसके प्रभावमे पडे हुए अन्य देश भोग और विषयोकी आराधना करनेमे मग्न है इसकी पूर्तिके