SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनशासन शास्त्रके द्वारा इतना तो सोचना चाहिए कि सद्भावना आदिके होते हुए भी सम्यक्-जानकी ज्योतिके विना सन्मार्गका दर्शन तथा प्रदर्शन कैसे सम्भव होगा। इसलिए अज्ञानता अथवा मोहकी प्रेरणासे तत्त्वज्ञोको रावणकी अभिवन्दना छोडकर रामका पदानुसरण करना चाहिए। जीवनमे शाश्वत तथा यथार्थ शान्तिको लानेके लिए यह आवश्यक है कि कूपमण्डूकवृत्ति अथवा गतानुगतिकताकी अज्ञ-प्रवृत्तिका परित्याग कर विवेककी कसौटीपर तत्त्वको कमकर अपने जीवनको उस ओर झुकाया जावे। धर्मके नामपर आत्म-साधना द्वारा कल्याण-मदिरमे दुखी प्राणियोको प्रविष्ट करानेकी प्रतिज्ञापूर्वक प्रचार करनेवाले व्यक्तियोके समुदायको देखकर ऐसा मालूम होता है कि यह जीव एक ऐसे बाजारमे जा पहुंचा है जहाँ अनेक विज्ञ विक्रेता अपनी प्रत्येक वस्तुको अमूल्यकल्याणकारी वता उसे वेचनेका प्रयत्ल कर रहे है। जिस प्रकार अपने मालकी ममता तथा लाभके लोभवश व्यापारी सत्य सम्भाषणकी पूर्णतया उपेक्षा कर वाक्-चातुर्य द्वारा हत-भाग्य ग्राहकको अपनी ओर आकर्षित कर उसकी गाँठके द्रव्यको प्राप्त करते है, उसी प्रकार 'प्रतीत होता है कि अपनी मुक्ति अथवा स्वर्गप्राप्ति आदिकी लालसावश भोले-भाले प्राणियोके गलेमे साधनामृतके नामपर न मालूम क्याक्या पिलाया जाता है और उसकी श्रद्धा-निधि वसूल की जाती है। ऐसे वाजारमें धोखा खाया हुआ व्यक्ति सभी विक्रेताओको अप्रामाणिक और स्वार्थी कहता हुआ अपना कोप व्यक्त करता है। कुछ व्यक्तियोकी अप्रामाणिकताका पाप सत्य तथा प्रामाणिक व्यवहार १ "तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः क्षारं जलं कापुरुषाः पिवन्ति ।"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy