________________
३६५
पुण्यानुवन्धी वाड्मय "प्रकृत्या स्यादकृत्ये धोर्दुःशिक्षायां तु किं पुनः ॥"३, ५० । ईर्ष्या, मात्सर्यके द्वारा अवर्णनीय क्षति होती है। भारतवर्षके अध.पातमे गासकोका पारस्परिक मात्सर्यभाव विशेष कारण रहा है। कविवर कहते है_ "मात्सर्यात् किं न नश्यति ।" ४, १७ ।
शिष्ट जन परस्पर सम्मिलनके अवसर पर पारस्परिक कुशलताकी चर्चा करते है। इस सम्बन्ध मे भूधरदासजी कहते है
"जोई दिन कट सोई आव में अवश्य घटे,
द वूद रीते जैसे अंजुली को जल है। देह नित छोन होत, नैन तेजहीन होत,
जोवन मलीन होत, छोन होत बल है। आवै जरा नेरी, तक अंतक-अहेरी आवै,
परभौ नजीक जात नरभौ विफल है। मिलकै मिलापी जन पूछत है कुशल मेरो, ऐसी दशा माही मित्र ! काहे को कुशल है ?" ,
-जैनशतक ३७। 'धनादिका लाभ होने पर अपने स्वास्थ्य आदिकी उपेक्षा करते हुए लोग आनन्दित होते है , कुशल-क्षेम समझते है। जीवन्धरचम्पमे हरिचन्द्र कवि कहते है-असि कृषि शिल्प वाणिज्य आदि षट् कर्मोके द्वारा सच्ची कुशलता-क्षेम वृत्ति नही मिलती है। उसके द्वारा अनेक प्रकारकी लालसा-लता विस्तृत होती है। सच्ची कुशलता निर्वाणमे है। आत्मस्वरूप अनन्त आनन्दमे कुगलता है। वह आत्माके ही द्वारा साध्य है।
कितना भावपूर्ण पद्य है• "कुशलं न हि कर्मषट्कजात विविधाशा-व्रतति-प्ररोहकन्दम् । अपवर्गजमात्मसाध्यमाहु. कुशलं सौख्यमनन्तमात्मरूपम् ॥"