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पुण्यानुवन्धी वाड्मय समन्तभद्र सदृश दार्शनिकता, तार्किकता और कवित्वका मनोहर सम्मिश्रण वडे पुण्यसे प्राप्त होता है। आचार्य सोमदेवने जीवनभर तर्कशास्त्रका अभ्यास किया और पश्चात् यशस्तिलकचम्पू-जैसी श्रेष्ठ रचना प्रारम्भ की, तव यह शका हुई कि भला शुष्क तार्किक क्या काव्य बनाएगा? इसके समाधानमे सोमदेव सूरि लिखते है
"आजन्म-समभ्यस्तात्, शुष्कात्तात्तृणादिव ममास्याः । मतिसुरभेरभवदिदं सूक्तिपयः सुकृतिनां पुण्यः॥"
-यश० ति०१-१७॥ मैने जीवनभर अपनी बुद्धिरूपी कामधेनुको शुष्क तकरूप तृण खिलाया है। सत्पुरुषोके पुण्यसे उससे यह सूक्तिरूप दुग्धकी उद्भूति
___इस बुद्धिरूप कामधेनुने यशस्तिलकचम्पू नामक विश्ववन्दनीय अनुपम रचना सोमदेव जैसे ताकिकसे प्राप्त करा दी।
तार्किक प्रभाचन्द्रकी कल्पनामे भी जीवन है। दुष्टोके उपद्रवसे सत्पुरुषोकी कृतिपर सदा पानी फिर जाया करता है । अत कही सज्जन लोग अपने पुण्यकार्यसे विरत न हो जावे इससे प्रभाचन्द्र प्रेरणा करते हुए कहते है-'ज्ञानवान् पुरुष दुर्जनोके घिरावके कारण उद्विग्न होकर अपने आरब्धकार्यको नही छोड देते है, किन्तु वे उस दुर्जनसे स्पर्धा करते है । चद्र सदा कमलके विकासको दूर कर उसे मुकुलित किया करता है , किन्तु इसका सूर्यपर कोई प्रभाव नही पडता, वह पुन पुन प्रतिदिन पद्म-विकासनकार्यको किया करता है। कितनी सुन्दर शैलीसे सत्पुरुपोको साहस प्रदान करते हुए सन्मार्गमे लगे रहनेकी प्रेरणा की है
"त्यजति न विदधानः कार्यमुद्विज्य धीमान्
___ खलजनपरिवृत्तः स्पर्धते किन्तु तेन । किमु न वितनुतेऽर्कः पद्मवोध प्रबुद्धः
तदपहतिविधायी शीतरश्मिर्यदीह ॥"-प्रमेयक० पृ०२॥