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पुण्यानुवन्धी वाडमय
तू मोक्षमार्ग विधिधारक है विधाता हे व्यक्त नाथ पुरुषोत्तम भी तुही है || "
कल्याणमन्दिर स्तोत्रमे कहा है
"त्व तारको जिन ! कथ भविना त एव त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यहा दृतिस्तरति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥ १०॥ "
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यहा कवि भगवान् से कहता है 'आप तारक नही है, क्योकि मै अपने चित्तमे आपको विराजमान कर स्वयं आपको तारता हू। इसी वातको बनारसीदासजी हिन्दी पद्यानुवादमे इस प्रकार समझाते है -
" तू भविजन तारक किमि होहि ? ते चित धारि तिहि ले तोहि ॥
यह ऐसे कर जान स्वभाव । तिरोह मसक ज्यो गर्भित वाव ॥ १० ॥"
इसका समाधान पद्यके उत्तरार्ध द्वारा करते है कि, जैसे पवनके प्रभावसे मशक जलमे तिरती है, उसी प्रकार आपके नामके प्रभावसे जीव तरता है ।
एकीभावस्तोत्रमे जिनेन्द्रकी भक्ति गंगाका वडा मनोहर चित्रण किया है । नयरूप हिमालयसे यह गंगा उदित हुई है और निर्वाणसिन्धु मे मिल जाती है । वादिराज सूरि कहते है
"प्रत्युत्पन्ना नयहिमगिरेरायता चामृताब्धेः
या देव त्वत्पदकमलयोः सङ्गता भक्तिगङ्गा । चेतस्तस्या मम रुचिवशादाप्लुत क्षालिताह:
कल्माष यदुद्भवति किमिय देव सन्देहभूमिः || १६ || " भूधरदासजी हिन्दी अनुवादमे इसे इस प्रकार स्पष्ट करते है" स्याद्वाद - गिरि उपज मोक्ष सागर लौं धाई । तुम चरणाम्बुज परस भक्ति गंगा सुखदाई ॥