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________________ पुण्यानुवन्धी वाडमय तू मोक्षमार्ग विधिधारक है विधाता हे व्यक्त नाथ पुरुषोत्तम भी तुही है || " कल्याणमन्दिर स्तोत्रमे कहा है "त्व तारको जिन ! कथ भविना त एव त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यहा दृतिस्तरति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥ १०॥ " ३८७ यहा कवि भगवान् से कहता है 'आप तारक नही है, क्योकि मै अपने चित्तमे आपको विराजमान कर स्वयं आपको तारता हू। इसी वातको बनारसीदासजी हिन्दी पद्यानुवादमे इस प्रकार समझाते है - " तू भविजन तारक किमि होहि ? ते चित धारि तिहि ले तोहि ॥ यह ऐसे कर जान स्वभाव । तिरोह मसक ज्यो गर्भित वाव ॥ १० ॥" इसका समाधान पद्यके उत्तरार्ध द्वारा करते है कि, जैसे पवनके प्रभावसे मशक जलमे तिरती है, उसी प्रकार आपके नामके प्रभावसे जीव तरता है । एकीभावस्तोत्रमे जिनेन्द्रकी भक्ति गंगाका वडा मनोहर चित्रण किया है । नयरूप हिमालयसे यह गंगा उदित हुई है और निर्वाणसिन्धु मे मिल जाती है । वादिराज सूरि कहते है "प्रत्युत्पन्ना नयहिमगिरेरायता चामृताब्धेः या देव त्वत्पदकमलयोः सङ्गता भक्तिगङ्गा । चेतस्तस्या मम रुचिवशादाप्लुत क्षालिताह: कल्माष यदुद्भवति किमिय देव सन्देहभूमिः || १६ || " भूधरदासजी हिन्दी अनुवादमे इसे इस प्रकार स्पष्ट करते है" स्याद्वाद - गिरि उपज मोक्ष सागर लौं धाई । तुम चरणाम्बुज परस भक्ति गंगा सुखदाई ॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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