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पुण्यानुबन्धी वाड्मय
३५१ यह बताया गया है, कि जिनेन्द्र के चरणोके नीचे देववृन्द कमलोकी रचना करते है। तामिल महाकाव्य नीलकेशी के जैन टीकाकार समय दिव.. कर मुनिवर कुरलको "my own bible" हमारा धर्मग्रन्थ कहते है।
साप्रदायिकोके कर तथा कलकपूर्ण कृत्योके कारण ही साधारणमति साधुचेतस्क व्यक्ति धर्ममात्रको प्रणाम कर सामान्य सदाचारको ही सुखीजीवनका आधारस्तभ मान प्रवृत्ति करते है। कम लोगोको इस वातका यथार्थ अववोध है कि जिस प्रकार अलाउद्दीन, गजनवी, गोरी सदृश, यवनोने भारतीय मठ, मन्दिरो, अन्यभण्डारोका अनन्त क्रूरतापूर्वक विनाश किया, उससे भी कही आगे बढकर धार्मिक अत्याचारोका निशाना धर्मान्य विप्रवर्गके इशारे पर नाचने वाले हिन्दू नरेशोने किया था। हमारे बहुमूल्य साहित्यका कैसा निर्मम नाश किया गया, इसका वर्णन सहृदय विद्वान् प्रो पार. ताताचार्य, एम ए एल टी अपने कन्नड जैन साहित्य सम्बन्धी अग्रेजी लेखमे करते हुए लिखते है
"Religious persecution, intolerance, bigotry, conservatism and the like have done much to put keep from the public all that is valuable in Kanada Jain literature. Thousands of bastis have been destroyed, and the libraries set on fire. Several thousands of palmyra manuscripts have been thrown into the Kaveri or the Tungabhadra and the havoc of worms has been equally destructive of he vast treasures of learning." (J. G. P. 178, P.XVI).
१ "पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्त- पद्मानि तत्र विबुधा परिकल्पयन्ति ॥"
-भक्तामर० ३६
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