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पराक्रमके प्रागणमे
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और उसके लिए अपने सर्वस्व तथा जीवननिधिकी तनिक भी परवाह न की । आज जो अनेक नरेश दृष्टिगोचर होते है उनकी भी वही गति होती, जो भारतीय स्वाधीनताके लिए मर मिटनेवालोकी हुई, अथवा भारतका इतिहास ही बदल गया होता, यदि ये अपने स्वार्थको प्राधान्य दे विरोधी पक्षसे मिलेकर साम्राज्यप्राप्तिका पुरस्कार पानेकी स्वार्थपूर्ण नीतिको न अपनाते । फुटके विप फैलनेपर अनेक अवसरवादियोने अपनी स्वार्थरक्षाका ध्यान किया, इसलिये वे विशेष उन्नतिशील दिखाई दिए। निजाम यदि ब्रिटिश साम्राज्यवादियोका Faithfully- ईमानदार साक्षी न बनता तो अग्रेजी राज्यमे उन हजरतका भारतीय नरेशोमे ऊचा आसन न होता । हमारी तो धारणा है कि निजामी नीतिपर न चलनेके कारण यद्यपि अनेक जैन नरेश केवल इतिहास के पृष्ठोमे स्मरणीय रह गये हैं पर उनका अपने सिद्धान्त पर मर मिटना भी इस प्रकारके अस्तित्वसे अच्छा है । आज कालचक्रके प्रसाद स जो नवीन परिवर्तन हुआ, वह सर्वत्र विदित है ।
पर्वोक्त विचारकी पुष्टि वास्तविक घटनाओसे सम्बन्ध रखती है। जब मन् १९३५ में हम दक्षिण कर्नाटक पहुचे थे, तब हमे मूडबिद्री ( मगलोर) में पुरातन जैनराजवशके टिमटिमाते हुए छोटेसे दीपकके समान श्रीयुत धर्मसाम्राज्येयासे यह समझनेका अवसर मिला, कि किस प्रकार उन लोगो की राज्यशक्ति क्षीण और नप्ट हुई। उन्होने बताया कि जब हैदरअली, टीपू सुलतान आदिका अग्रेजोसे युद्ध चल रहा था, उस समय हमारे पूर्वजोने अग्रेजोका साथ नही दिया था और कूटनीतिके प्रसादसे जब जयमाला अग्रेजो के गलेमे पडी तव हम लोगोको अपने राज्यसे हाथ धोना पडा। इस प्रकागमें यह बात दिखाई पडती है कि किस प्रकार जैन नरेशोको अपना अस्तित्व तक खोना पडा । स्वार्थियोकी निगाह में जहा वे असफल माने जायँगे, वहा स्वाधीनताके पुजारियो के लिये वे लोग सुरत्वसम्पन्न दिखाई पडेगे ।