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________________ ३४० जैनशासन जैनधर्मी थे। मारवाड़क नरेश विजयसिंहके सेनापति डूमराज जनने अठारहवी सदीके महाराष्ट्रोके साथके युद्धमे प्रगसनीय पराक्रमका परिचय दिया था। बीकानेरके दीवान एव सेनानायक अमरचद जी जैनने मटनेरवाले जवताखाको युद्धमे जीता था। वीरशिरोमणि जिनभक्त सोलकी राज्यके मत्री आभूने यवनोको पराजित कर अपने राज्यको निरापद किया था। स्मिय और निगहमने जिस वीर सुहलदेवको जैन माना है, उसने वहराइचमे मुस्लिम सैन्यको पराजित किया था। उस समय यवन पक्षने बडी विचित्र चाल खेली थी। अपने समक्ष गोपक्ति इकट्ठी कर दी थी। इससे गोभक्त हिंदूसैन्य और शासक किं-कर्तव्यविमूढ हो स्तब्ध हो गए थे और सोचते थे-यदि हमने शत्रुपर शस्त्रप्रहार किया तो गोवधका महान् पाप हमारे सिरपर सवार हो हमें नरक पहुँचाये विना न रहेगा। ऐसे कठिन अवसरपर वीर सुहलदेवने जैनधर्मकी गिक्षाका स्मरण करते हुए आक्रमणकारी तथा अत्याचारी यवन सैन्यपर वाणवर्षा की और अतमे जयश्री प्राप्त की। ___ इससे यह वात प्रमाणित होती है कि भारतीय इतिहासकी दृष्टिमे जैनशासको तथा नरेशोका पराक्रमके क्षेत्रमें असाधारण स्थान रहा है। यदि भारतवर्षके विशुद्ध इतिहासकी, वैज्ञानिक प्रकागमे सामग्री प्राप्त की जाय और उपलब्ध सामग्रीपर पुन. सूक्ष्म चिंतना की जाय तो जैनशासनके आराधकोके पराक्रम, लोकसेवा आदि अनेक महत्त्वपूर्ण बातोका ज्ञान होगा। विशुद्ध इतिहास, जो साप्रदायिकता और सकीर्णताके पकसे अलिप्त हो यह प्रमाणित करेगा कि कमसे कम समस्त भारतवर्षमें भगवान महावीरके पवित्र अनुगासनका पालन करनेवाले जैनियो द्वारा भारतवर्षकी अभिवृद्धिमें अवर्णनीय लाभ पहुंचा है। आज कही भी जैनधर्मक शासक नरेश नहीं दिखाई देते। इसका कारण एक यह भी रहा है कि देशमें जब भी मातृभूमिकी स्वतत्रता और गौरक्षाका अवसर आया है तब प्राय. जैनियोने स्वाधीनताके सच्चे पक्षका समर्थन किया
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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