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तथा.वासनाओका दास बना हुआ है, उसे सयम और समतापूर्ण श्रेष्ठ जीवन को अपना आदर्श बनाना होगा। असमर्थ साधक शक्ति तथा योग्यताको विकसित करता हुआ एक दिन अपने पूर्णता' के ध्येयको प्राप्त करेगा।
प्राथमिक साधक मद्य, मासादिका परित्याग करता है, किन्तु लोक जीवन तथा सासारिक उत्तरदायित्व रक्षण निमित्त वह शस्त्रादिका सचालन कर न्याय पक्षका सरक्षण करनेसे विमुख नहीं होता। ऐसे साधकोमे सम्बाट् चन्द्रगुप्त, विम्वसार, सप्रति, खारवेल, अमोघवर्ष, कुमारपाल प्रभृति जैन नरेन्द्रोका नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। उनके शासनकालमै प्रजा सुखी थी। उसका नैतिक जीवन भी आदरणीय था। इन नरेशोंने शिकार खेलना, मांस भक्षण सदृश सकल्पी हिसाका त्याग किया था, किन्तु आश्रितजनोके रक्षणार्थ तथा दुप्टोके निग्रहार्थ अस्त्र शस्त्रादिके प्रयोगमै तनिक भी प्रतिवन्ध नही रखा था। अन्यायके दमन निमित्त इनका भीषण दण्ड प्रहार होता था। भगवत् जिनसेन स्वामीके शब्दोमें इसका कारण यह था"प्रजाः दण्डधराभावे मात्स्यं न्यायं श्रयन्त्यमः ॥"
-महापु० १६१२५२ ॥ यदि दण्ड धारणमे नरेश शैथिल्य दिखाते, तो प्रजामे मात्स्य न्याय (वडी मछली छोटी मछलियोको खा जाती है, इसी प्रकार वलवान् के द्वारा दुर्वलोका सहार होना मात्स्य न्याय है) की प्रवृत्ति हो जाती।
कुशल गृहस्थ जीवनमे असि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि कर्मोको विवेकपूर्वक करता है । आसक्ति विशेष न होने के कारण वह मोही, अज्ञानी जीवके समान दोपका संचय भी नही करता।
इस वैज्ञानिक युगके प्रभाववश शिक्षित वर्गमे उदार विचारोका उदय हुआ है और वे ऐसी धार्मिक दृष्टि या विचारधाराका स्वागत करनेको तैयार है, जो तर्क और अनुभवसे अबाधित हो और जिससे आत्मा