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________________ उसे जितना जितना पिओगे उतनी उतनी प्यास बढ़ेगी। इसी प्रकार विषय भोगोकी जितनी-जितनी आराधना और उपभोग होगा, उतनी अशान्ति और लालसा तथा तृष्णाकी अभिवृद्धि होगी। एक आकाक्षाके पूर्ण होनेपर अनेक लालसाओका उदय हो जाता है, जो अपनी पूर्ति होनेतक चित्तको आकुलित बनाती है। आकुलता तथा मुसीवत पूर्ण जीवनको देखकर लोग कभी कभी सोचते है, यह आफत कहासे आ गई? अज्ञानवश जीव अन्योका दोष देता है, किन्तु विवेकी प्राणी शान्त भावसे विचारनेपर इसका उत्तरदायी अपनेको मानता है और निश्चय करता है कि अपनी भूलके कारण ही में विपत्तिके सिन्धुमे डूबा हूँ। दौलतरामजीका कथन कितना सत्य है "अपनी सुधि भूलि श्राप, आप दुख उपायो। ज्यो शुक नभ चाल बिसरि नलिनी लटकायो । चेतन अविरुद्ध, शुद्ध-दर्श-बोधमय, विशुद्ध, तज, जड़-रस-फरस-रूप पुद्गेल अपनायो ॥१॥" कवि और भी महत्त्वकी बात कहते है "चाह दाह दाह, त्याग न चाह चाहै। " समतासुधा न गाह, 'जिन' निकट जो वतायो ॥२॥" यथार्थमे कल्याणका मार्ग है समता, विषमताका त्याग । मोह, राग, द्वेष, मद, मात्सर्यने विषमताका जाल जगत् भरमें फैला रखा है। समताके लिए इस जीवका उनका आश्रय ग्रहण करना होगा, जिनके जीवनसे राग द्वेष मोहादिकी विषमता निकल गई है। उनको ही वीतराग, जिन, जिनेन्द्र, अर्हन्त, परमात्मा कहते है। कर्म शत्रुओके साम्राज्यका अन्त किए विना साम्यको ज्योति नहीं मिलती। समताके प्रकागमे भेद, विषाद, व्यामोह या सकीर्णताका सद्भाव नही रहता। वीतराग, वीतमोह, वीतद्वेष बने बिना, समता-सुधाका रसास्वाद नहीं हो पाता। जो प्राणी कर्मों
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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