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इतिहासके प्रकाशमें
२६५ पूर्वक कहते है कि समस्त स्तूप और पापाणके कटघरे बौद्ध ही होगे, इस पक्षपातने जैन ढाचोको जैन माने जानेमें वाधा उत्पन्न की,
और यही कारण है कि अब तक केवल दो ही जैन स्तूपोका उल्लेख किया गया है।
उत्कल-उडीसा प्रान्तमे पुरी जिलेके अन्तर्गत उदयगिरि खण्ड-गिरि के जैन 'मन्दिरका हाथीगुफावाला गिलालेख जैनधर्मकी प्राचीनता की दृष्टिसे असाधारण महत्त्वपूर्ण है। उस लेखमे "नमो अरहतानं नमो सव सिद्धान" आदि वाक्य उसे जैन प्रमाणित करते है। यह ज्ञातव्य है कि शिलालेखमे आगत 'नमो सव सिधान' वाक्य आज भी उड़ीसा प्रातमे वर्णमाला शिक्षण प्रारभ कराते समय 'सिद्धिरस्तु' के रूपमे पढा जाता है। तेलगू भाषामे 'ॐ नम शिवाय' 'सिद्ध नम' वाक्य उस अवसरपर पढा जाता है। महाराष्ट्र प्रान्तमे भी 'ॐ नम सिद्धेम्य' पढा जाता है। हिन्दी पाठशालाओमें जो पहले 'ओ नाभा सीध' पढाया जाता था वह 'ॐ नम सिद्धम् का ही परिवर्तित रूप है। इससे भिन्न भिन्न प्रान्तीय भाषाओपर अत्यत प्राचीनकालीन जैन-प्रभावका सद्भाव सूचित होता है ।
शिलालेखमें लिखा है कि महामेघवाहन महाराज खारवेल मगध देशके अधिपति पुष्यमित्रके पाससे भगवान् वृषभदेवकी मृति वापिस लाए। तीन सौ वर्ष पूर्व मगधगधिपति नन्दनरेश उस मूर्तिको अपने यहा कलिगसे
“The prejudice that all stupas and stone railings must necessauly be Buddhust, has probably prevented the recognition of Jain structures as such, and upto the present only two undoubted Jain stupas have been recorded.
Dr Fleet Imp Gaz Vol 11, p 111 २ Engash Jain Gazette p. 242 of 1920 Article by Prof B Sheshagiri Rao M. A on "Periods of Andhra culture"