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जैनशासन भी जाता है, किन्तु प्राचीनतम खड्गासन जैन मूर्तिका दिगम्बर मुद्रासे अकित पाया जाना, दिगम्बर सप्रदाय ही पुरातन जैनधर्म है, इस दृष्टिको परमार्थ प्रमाणित करता है। एक बात और भी विचारणीय है, कि पद्मासन जैनमूर्तिकी पहिचान वक्ष स्थलमे विद्यमान श्रीवत्स चिह्नसे होती है, यदि पुरातन जैनमूर्ति अदिगम्बर सम्प्रदायानुसार सालकार होती, तो उसमे श्रीवत्स चिह्नका दर्शन ही सभव नही होता, तव उनकी पहिचान भी न हो पाती। अत अदिगम्वर सप्रदायकी अर्वाचीनता अबाधित सिद्ध होती है। ___जैनधर्ममे स्तूपोकी मान्यताके विषयमे जिन्हे सन्देह है, वे कृपया महापुराणके सर्ग २२, श्लोक २१४ को देखे, जिससे जिनेन्द्र भगवान्के समवशरणमे मानस्तभ, चैत्यवृक्षादिके साथ स्तूपादिका भी सद्भाव बताया है, यथा
"सिद्धार्थ चैत्यवृक्षाश्च प्राकारवनवेदिकाः।
स्तूपाः सतोरणा मानस्तन्मा स्तम्भास्स केतवः ॥ २१४ ॥" यह भी वर्णन आया है कि बडे रास्तेके मध्यमे ६ स्तूप थे, जिनपर अरिहन्त तथा सिद्ध भगवान्की मूर्तिया विराजमान थी। (२६२-६५)। अत यदि सूक्ष्म परीक्षण किया जाय तो जिन शोधकोने जैनियोमे स्तूप नही होते इस भूमवश स्तूप मात्र देख उन्हे बौद्ध कह दिया है, उन्हे महत्त्वपूर्ण सशोधन अनेक स्थलोके विषयमे करना न्यायप्राप्त होगा। ___इतिहासकारोने बहुतसी जैनपुरातत्त्वकी महत्त्वपूर्ण सामग्रीको अपनी भान्त धारणाओके कारण वौद्ध सामग्नी घोपित कर दिया है। स्मिथ साहब यह वात स्वीकार करनेका सौजन्य प्रदर्शित करते है कि कही कही भूलसे जैन स्मारक बौद्ध बता दिए गए है । डा० फ्लीट अधिक स्पष्टता
१. "In some cases monuments which are really Jains, have been erioneously described as Buddhists" V Smith.