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जैनशासन
का कतर्व्य है । चतुर साधक अनुकूल कालको प्राप्त कर अपने साध्यकी प्राप्ति निमित्त हृदयसे उद्योग करता है ।
इतिहास के प्रकाश में
पुरातत्त्व प्रेमियोका प्राचीन वस्तुपर अनुराग होना स्वाभाविक हैं, किन्तु किसी दार्शनिक विचार-प्रणालीको प्राचीनताके ही आधारपर प्रामाणिक मानना समीचीन नही है । ऐसा कोई सर्वमान्य नियम नहीं है, कि जो प्राचीन है, वह समीचीन तथा यथार्थ है और जो अर्वाचीन है, वह अप्रामाणिक ही है । असत्य, चोरी, लालच आदि पापोके प्रचारकका पता नही चलता, अत अत्यन्त प्राचीनताकी दृष्टिसे उनको कल्याण -- कारी मानने पर बडी विकट स्थिति उत्पन्न हो जायगी । प्राचीन होते हुए. भी जीवनको समुज्ज्वल बनाने में असमर्थ होने के कारण जिस प्रकार चोरी आदि त्याज्य है, उसी प्रकार प्रामाणिकताकी कसौटीपर खरे न उतरनेके कारण प्राचीन कहा जानेवाला तत्त्वज्ञान भी मुमुक्षुका पथ-प्रदर्श नही करेगा ।
कालिदासने कितनी सुन्दर बात लिखी है
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"पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि नूनं नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥"
प्राचीन होने मात्रसे सभी कुछ अच्छा नही कहा जा सकता और न नवीन होनेके कारण सदोष ही । सत्पुरुष परीक्षा कर योग्यको स्वीकार करते हैं किन्तु अज्ञानी दूसरे के ज्ञानके अनुसार अपनी बुद्धिको स्थिर करते है - वे स्वयं उचित - अनुचित बातके विषयमे विचार नही करते ।
तार्किक जैन आचार्य सिद्धसेन कहते है - प्राचीनताका कोई अवस्थित रूप नही है। जिसे हम आज नवीन कहते है, कुछ कालके व्यतीत होने-पर उसे ही हम प्राचीन कहने लगते हैं। उनका तर्क यह है