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साधकके पर्व
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विनय महा घार जो प्रानी । शिव वनिता तस सखिय बखानी। शील सदा दृढ़ जो नर पाले । सो औरनको प्रापद टाले। ज्ञानाभ्यास कर मन मांहीं । ताके मोह-महातम नाहीं। जो संवेग भाव विसतारै । सुरग मुलति पद आप निहार। दान देय मन हरष विशेखे । इह भव जस परभव सुख दे। जो तप तप खप अभिलापा। चूरै करम-शिखर गुरु भाषा। साधु समाधि सदा मन लावै । तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावै । निसि दिन वैयानृत्य करया । सो निह भव-सिंधु तिरैया। जो अरिहन्त भगति मन आने । सो जन विषय कषाय न जाने । जो आचारज भगति करे है । सो निरमल आचार घरे है। बहु-श्रुन-वन्त भगति जो करई। सो नर संपूरन श्रुत घरई। प्रवचन भगति कर जो ज्ञाता । लहै ज्ञान परमानंद दाता । 'षट् आवश्यक काल जो लाये । सो ही रत्नत्रय पारा । धरम प्रभावकर जो ज्ञानी । तिन शिव मारग रीति पिछानी। वत्सल अंग सदा जो ध्यावे । सो तीर्यकर पदवी पावे ॥ ६ ॥
एही सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय ।
देव-इन्द्र-नर-वन्य पद, 'धानत' शिवपद होय ॥" सपूर्ण भाद्रपदमे भावनाओका व्रत सहित अभ्यास किया जाता है। इन भावनाओके अंतस्तलपर दृष्टि बालनेसे विदित होता है, कि अत्यन्त महिमापूर्ण त्रिभुवनवंदित तीर्थकर पद प्राप्त करनेवाले आत्माको कितनी उच्चकोटिकी साधना आवश्यक होती है। जैन आगममें कहा है-कोई भी समर्थ मानव अपनी साधनाके द्वारा नीयंकर वनने योग्य पुण्यका सम्पादन कर सकता है। ___ इस प्रकार योग्यकालको प्राप्त कर साधक अपनी सावनाके पथमें प्रगति करता रहता है। मोहान्वकार और प्रमादको दूर कर आत्मजागरणकी ओर उन्मुख हो सात्त्विक वृत्तियोको विकसित करना तत्त्वज्ञों