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जनशासन
बना और भगवान् महावीरकी वाणीको विश्वमे सुनानेका तथा अनकान्तकी पताका सर्वत्र फहरानेका सौभाग्य प्राप्त कर सका। तथा, अन्तमे पूर्ण साधना होने पर भगवान् महावीरके समान मुक्तात्मा हो गया। हमे प्रतीत हुआ, यदि व्यक्ति गौतमके समान हृदयसे प्रयत्न करे तो आज भी आत्मविकासके लिये व्यापक क्षेत्र विद्यमान है। आचार्य कहत है-रत्नत्रयसे शुद्ध हो यदि कोई जीव आत्मकल्याण करे तो आज भी वह व्यक्ति लौकान्तिक देव आदिके श्रेष्ठ पदोको प्राप्त करते हुए, फिरसे श्रेष्ठ मानवके रूपमें जन्म धारण कर तप साधनाके प्रभावसे निर्वाणको प्राप्त करेगा।
जैन-आगमसे ज्ञात होता है कि समर्थ-साधक मरणकर निर्वाणके योग्य विदेह सदृश भूमिमे जा जन्म लेकर ७ वर्ष ३ माह अन्तर्मुहूर्तमे केवलज्ञानके लोकातिशायी आत्मवैभवको प्राप्त कर सकता है। गुणावा क्षेत्रने ऐसे वहुतमे विचारो द्वारा हमारी आत्माको प्रबुद्ध किया-शान्ति प्रदान की। वे विचार अन्य स्थान पर नहीं मिले। वहा उन विचारोके पोपणयोग्य सामग्री थी। वातावरण यह विचार उत्पन्न करता था कि यह वही स्थान है, जहा योगियोके द्वारा भी वन्दनीय श्रमणोत्तम ब्रह्मजानी गौतमने अपनी साधनाका सुमधुर फल निर्वाण प्राप्त किया था। इस प्रकार तीर्थकरोके जीवनमे सम्बन्धित पवित्र स्थानोकी यात्रा पुण्यमवर्धनमे निमित्त बना करनी है। सागारधर्मामृतमे पडित आशाधरजी गृहस्थको तीर्थ वन्दना निमित्त प्रेरणा करते हुए लिखते है
"स्थूललक्ष. क्रियास्तीर्थयात्राद्या दृग्विशुद्धये।" -२२८४ । गृहस्थ अपने तत्त्वज्ञानकी विशुद्धि निमित्त तीर्थयात्रादि क्रियाओको
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१ "अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाऊण लहदि इदत्त। लोयंतियदेवत्तं तत्य चुना णिचुदि जंति ॥"
-मोक्षप्राभृतमें कुन्दकुन्द स्वामी ।