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कर्मसिद्धान्त
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इन दोनो मनोवृत्तियोके मध्यवर्ती जीवोका वर्णन उक्त चित्रके द्वारा हो जाता है। सिवनीके विशाल जैन मन्दिरमे वर्णित चित्रके सुन्दर भावको देख दो आगन्तुक हाईकोर्ट के जजोने मनोभावोको व्यक्त करनेकी प्रवीणताकी हृदयसे सराहना की थी। मनोभावोका सूक्ष्मतासे सफल सजीव चित्रण करनेमें जैन-शास्त्रकार बहुत सफल हुए है। और यह सफलता यात्रिक आविष्कारोकी अपेक्षा अधिक कठिन और महत्त्वपूर्ण है। अपने राजयोगमे श्री विवेकानन्द लिखते है-“वहिर्जगत् की क्रियाओका अध्ययन करना अधिक आसान है, क्योकि उसके लिए बहुतसे यत्रोका आविष्कार हो चुका है, पर अन्त प्रकृतिके लिए हमे किन यन्त्रोसे सहायता मिल सकती है ?" ___ इस कर्म-जालसे छूटनेके लिये आत्म-दर्शनके साथ विषयोके प्रति निस्पृहता पूर्वक सयत जीवन व्यतीत करना आवश्यक है। ___इस कर्म-सिद्धान्त से यह वात स्पष्ट होती है कि वास्तवमे इस जीवका (शुभ-अशुभ कर्मके सिवाय) कोई अन्य न तो हित करता है और न अहित । मिथ्यात्व कर्मके अधीन होकर धर्म-मार्गका त्याग करनेवाला देवता भी मरकर एकेन्द्रिय वृक्ष होता है। धर्माचरणरहित चक्रवर्ती भी सम्पत्ति न पाकर नरक मे गिरता है। इसलिये अपने उत्तरदायित्वको सोचते हुए कि इस जीवन का भाग्य स्व-उपार्जित कर्मोके अधीन है, धर्माचरण करना चाहिये। स्वामिकार्तिकेय मुनिराजने उपर्युक्त सत्यको इस प्रकार प्रकाशित किया है
"ण य को वि देदि लच्छो ण को वि जीवस्स कुणइ उवयारं। उवयार अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ॥ ३१६ ॥ देवो वि धम्मचत्तो मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि। चक्की वि धम्मरहिरो णिवडइ गरए ण सम्पदे होदि ॥ ४३३॥
१ -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ।