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जैनशासन
होनेसे कोई भी केवली नही होगा । कदाचित् अल्प- ज्ञानसे मोक्ष मान भी लें तो बहुत अज्ञानसे बन्ध हुए विना न रहेगा।"" ऐसी स्थितिमें समन्वयकारी मार्ग प्रदर्शित करते हुए आचार्य श्री लिखते हैमोहयुक्त अज्ञानसे वन्ध होता है, मोहरहित अज्ञान वन्धका कारण नही है | मोहरहित अल्पज्ञानसे मुक्ति प्राप्त होती है और मोहयुक्त ज्ञानसे मुक्ति नही मिलती । '
इस विवेचनसे कोई यह मिथ्या अर्थ न निकाले कि जैन- शासन में उच्च-ज्ञानको अनावश्यक एव अग्राह्य बताया है । महान् शास्त्रोके परिशीलन से राग, द्वेष आदि विकार मन्द होते है, मनोवृत्ति स्फीत हो जीवनज्योतिको विशेष निर्मल बनाती है । स्वामी समन्तभद्रने उच्च ज्ञान सम्वन्धी एकान्त दृष्टिकी दुर्बलताको स्पष्ट किया है, अन्यथा अभीक्ष्णज्ञानोपयोग नामकी भावना द्वारा तीर्थंकर प्रकृतिके वन्धका जिनागममे वर्णन -न किया जाता। बन्धतत्त्वके स्वरूपको हृदयगम करनेके लिये यह जानना आवश्यक है कि मनोवृत्तिके अघीन वन्घ, अबन्धकी व्यवस्था है । ज्ञान और वैराग्यसम्पन्न व्यक्ति ससारके भोगोमे तन्मय और आसक्त नही बनता है। राग, द्वेष, मोह आदिकी भयकर लहरो से व्याप्त इस संसार - सिन्धु मे सुन साधक निमग्न न हो तीरस्थ बनकर विपत्तियों से बचता है। कारण
"तीरस्थाः खलु जीवन्ति न तु रागान्धिगाहिनः । "
वाह्य प्रवृत्तिमे कोई विशेष अन्तर न होते हुए भी वीतरागभाव 'वशिष्ट ज्ञानी और अज्ञानीमे मनोवृत्तिकृत महान् अन्तर है । इसलिये १ " अज्ञानाच्चेद् ध्रुवो बन्धो ज्ञेयानन्त्यान केवली । ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद् बहुतोऽन्यथा ।।"
- प्राप्तमीमांसा ६६
२ "अज्ञानान्मोहिनो बन्यो न ज्ञानाद् वीतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥ ६८ ॥ "