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जैनशासन
सर्वज्ञताकी ज्योतिसे अलकृत होता है। जगत्मे वौद्धिक विभिन्नताका कारण यह ज्ञानावरण कर्म है। आत्माकी दर्शन-शक्तिपर आवरण करने वाला दर्शनावरण कर्म है। इस जीवको स्वाभाविक निर्मल आत्मीय आनन्दसे वचित कर अनुकूल अथवा प्रतिकूल पदार्थोमे इन्द्रियोके द्वारा सुख-दुखका अनुभव करानेवाला वेदनीय कर्म है। मदिराको पीनेवाला व्यक्ति ज्ञानवान् होते हुए भी उन्मत्त बन उत्पथगामी होता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्मरूप मद्यके ग्रहण करनेके कारण अपनी आत्माको भूल पुद्गल तत्त्वमे अपनी आत्माका दर्शन कर अपनेको समझने का प्रयत्न नहीं करता। यह मोहकर्म कर्मोका राजा कहा जाता है। दृष्टिमे मोहका असर होनेपर यह जीव विपरीत दृष्टिवाला बन शरीरको आत्मरूप और आत्माको शरीररूप मानकर दुखी होता है। ___ इस मोहके फन्देमे फँसा हुआ अभागा जीव अपने भविष्यका कुछ भी ध्यान न रख इन्द्रियोके आदेशानुसार प्रवृत्ति करता है। कभी-कभी यह दौलतरामजीके शब्दोमे 'सुरतरु जार कनक वोवत है' और बनारसीदासजीको उद्बोधक वाणीमे यह
"कायासे विचार प्रीति माया हीमें हार जोति, लिये हठ-रीति जैसे हारिलकी लकरी। चुंगुलके जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि, त्यों ही पाय गाड़े पै न छाडै टेक पकरी॥ मोहकी मरोर सों भरमको न गेर पावे, धावै चहुँ ओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी। ऐसी दुरबुद्धि भूलि झूठके झरोखे झूलि, फूली फिरै ममता जंजीरन सों जकरी॥३७॥"
__-नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिद्वार । घड़ीमे मर्यादित कालके लिए चाभी भरी रहती है। मर्यादा पूर्ण होनेपर घड़ीकी गति बन्द हो जाती है। इसी भाति आयु नामके कर्म द्वारा