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कमसिद्धान्त
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रूप परिणमन होता है। पूज्यपाद स्वामी भी इस सम्बन्धमे भोजनका उदाहरण देते हुए समझाते है कि जिस प्रकार 'जठराग्निके अनुरूप आहारका विविध रूप परिणमन होता है, उसी प्रकार तीव्र, मन्द, मध्यम कषायके अनुसार कर्मोके रस तथा स्थितिमै विशेषता आती है। इस उदाहरणके द्वारा प्रकृत विषयका भली भाति स्पष्टीकरण होता है कि निमित्त विशेषसे पदार्थ कितना विचित्र और विविध परिणमन दिखाता है। हम भोजनमे अनेक प्रकारके पदार्थोको ग्रहण करते है। वह वस्तु श्लेष्मागयको प्राप्त करती है,ऐसा कहा गया है। पश्चात् द्रव रूप धारण करती है,अनन्तर पित्ताशयमे पहुँचकर अम्लरूप होती है । वादमे वाताशयको प्राप्त कर वायुके द्वारा विभक्त हो खल भाग तथा रस भाग रूप परिणत होती है। खल भाग मल-मूत्रादि रूप हो जाता है और रस भाग रक्त, मास, चरवी, मज्जा, वीर्य रूप परिणत होता है। यह परिणमन प्रत्येक 'जीवमे भिन्न-भिन्न रूपमें पाया जाता है। स्थूल रूपसे तो रक्त, मास, मज्जा आदिमे भिन्नता मालूम नही होती किन्तु सूक्ष्मतया विचार करनेपर विदित होगा कि प्रत्येकके रक्त आदिमें व्यक्तिकी जठराग्निके अनुसार भिन्नता पाई जाती है। भोज्य वस्तुके समान कार्माणवर्गणा इस जीवके भावोकी तरतमताके अनुसार विचित्र रूप धारण करती है। इस कर्मका एक विभाग ज्ञानावरण कहलाता है, जिसके उदय होनेपर आत्माको ज्ञानज्योति ढंक जाती है और कभी न्यून, कभी अधिक हुआ करती है। इस कर्मकी तरतमताके अनुसार कोई जीव अत्यन्त मूर्ख होता है तो कोई चमत्कारपूर्ण विद्याका अधिपति बनता है। कमसे-कम ज्ञान-गक्ति दवकर एकेन्द्रिय जीवोमे अक्षरके अनन्तवे भागपनेको प्राप्त होती है और इस ज्ञानावरण-ज्ञानको ढाकनेवाले कर्मके दूर होनेपर आत्मा
१ "जठराग्न्यनुरूपाहारग्रहणवत्तीवमन्दमध्यमकषायानुरूपस्थित्यनुभवविशेषप्रतिपत्त्यर्थम् ।" -स० सि० ७।२।