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अहिंसाके आलोकमे
१३६ न्धित स्वीकार किया है। यद्यपि अपनी पुस्तक भगवान् बुद्ध भाग २ (मराठी) अध्याय ११ मे केवल 'जैन' शब्द देकर दिगम्बर दृप्टिके प्रति कम अन्याय नहीं किया था। अच्छा हुआ, सुवहका भूला सध्याको घर आ गया। पालीके अध्येता विद्वान् होनेके नाते, यदि निष्पक्ष दृष्टिसे वे कार्य लेते, तो उन्हें यह प्रकाश अवश्य प्राप्त होता कि यदि भगवान महावीर शुद्ध शाकाहारी न होते, तो प्रतिद्वन्द्वी बौद्ध-साहित्य मिर्च-मसाला लगा महावीरकी महत्तापर छीटाकशी किए बिना न रहता। उपयुक्त विवेचनाके प्रकागमे आशा है साम्प्रदायिको द्वारा प्रसारित भम दूर होगा। विचारक यह भी सोच सकते है कि जिस सस्कृतिमे मास को देखनेमात्रसे दिगम्बर मुनिकी तो बात ही क्या, गृहस्थ भी आहारका 'परित्याग कर देता है, वहा श्रेष्ठ जितेन्द्रिय आजीवन ब्रह्मचारी साम्राज्य परित्यागी परमकारुणिक श्रमणोत्तम महावीर असात्त्विक भावोका प्रेरक
और प्राणिघातसे निप्पन्न आमिष आहार क्या कभी स्वप्नमे भी ग्रहण कर सकेगे? वास्तवमे विषयोकी स्वयकी लोलुपताकी ओटमे लुब्धक लोग आदर्श-चरित्र पुरुषोको सदोष वना अपनी स्वेच्छापूर्ण प्रवृत्ति करनेमें निरकुश हो जाते है। __ आज अहिंसाका उच्च स्वरमे जयघोष खूब सुनाई पडता है। किन्तु, ऐसे कम लोग है जो अहिंसाका मर्म वास्तविक रूपमे जानते है। विरोधीपर शस्त्र-प्रहारमात्र छोड मनमानी विषैली वाणीका प्रयोग करना, मद्य, मास, मधु आदि पदार्थोका सेवन करना, वेश्यासेवन, शिकार खेलना आदि कार्य करते हुए भी श्रेष्ठ अहिसकका सेहरा सिरमे वाधनेवालोकी भी आज कमी नही है। जब अहिंसातत्त्व-ज्ञानका सर्वागीण वर्णन और परिपालन जैन-सस्कृतिके ध्वजके तले हुआ है, तव जैनदृष्टि से इस विषयपर प्रकाश डालना आवश्यक तथा उपयोगी होगा।
भारतमे अहिंसाका हिंसाके निषेध रूप निवृत्ति परक अर्थ किया जाता है और चीन देशमें उसका विधि रूप ( Positive ) अर्थ