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जैनशासन
उपनिषद् साहित्यमे विदेह और मगधमे जहा क्षत्रिय नरेशोका प्राबल्य था - अहिसात्मक यज्ञका प्रचार था । वे लोग एक विशेष भाषाका उपयोग करते थे जिसमे 'न' को 'ण' उच्चारित किया जाता था, जो स्पष्टत प्राकृत भाषाके प्रभाव या प्रचारको सूचित करता है । पहिले तो कुरु पाचाल देशके विप्रगण मगध और विदेह भूमिवालोको अहिसात्मक यज्ञके कारण तुच्छ समझ उन प्रदेशोको निषिद्धभूमि-सा प्रचारित करते थे, किन्तु पश्चात् जनकके नेतृत्वमे अहिंसा और अध्यात्मविद्याका प्रभाव बढ़ा और इसलिए अपनेको अधिक शुद्ध मानने वाले कुरु पाचाल देशीय विद्वज्जन आत्मविद्याकी शिक्षा-दीक्षा निमित्त विदेह आदिकी ओर आने लगे ।
वुद्धकालीन भारतमे भी इसी प्रकारकी कुछ प्रवृत्ति दिखाई देती है । जहा 'महावग्ग' मे गौतम बुद्ध धर्मोपदेश देते हुए कहते है - इरादा पूर्वक भिक्षुको किसी भी प्राणी - कीडा अथवा चीटी तककी हिंसा नही करनी चाहिए, वहा विनयपिटक' में बुद्ध यह उपदेश देते हुए पाए जाते है- " भिक्षुओ, मैं कहता हूँ कि मछली तीन अवस्थामे ग्राह्य है । पहिले यदि तुम उसे इस रूपमे न देखो, दूसरे यदि तुम उसे इस रूपमे न सुनो और तीसरे तुम्हारे चित्तमे इस प्रकारका सन्देह ही उत्पन्न न हो कि यह तुम्हारे लिए ही पकडी गई हैं ।"" महावग्गमे लिखा है कि- "नवदीक्षित एक मत्रीने बारह सौ पचास भिक्षुओ सहित बुद्धको आमंत्रित
१ “I prescribe, O Bhikkus, that fish to you in three cases - if you do not see, if you have not heard, if you do not suspect (that it has been caught specially to be given to you)” The Vinaya Text XVII p 117.
1250 Bhikkus and gave meat too ate it” Mahavagga, VI- 252
२. "Newly converted minister invited Buddha with Samgha with Buddha
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