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अहिंसा के आलोक मे
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सौधातकी और भाण्डायन दो गिप्योका वार्तालाप वर्णित किया है। वसिष्ठ ऋषिको देख सौघातकी पूछता है - "भाण्डायन, आज वृद्ध साधुओमे प्रमुख चीरधारी कौन अतिथि आए है ? भाण्डायन उनका नाम वसिष्ठ बताता है । यह सुन सौधातकी कहता है- "मये उण जाणिदं, वग्धो वा वियो वा एसोत्ति" - मे तो समझता था कि कोई व्याघ्र अथवा भेड़िया आया है। इसका कारण वह कहता है- तेण परावडिदेणज्जेव सा बराइया कलोडिया मडमडाइदा - जैसे ही वे आये उन्होने एक दीन गोवशको स्वाहा कर दिया । इसपर भाण्डायन कहता है कि धर्मसूत्रमे कहा है कि मधु और दधिके साथ मासका मिश्रण चाहिये। इसलिए श्रोत्रिय गृहस्थ ब्राह्मण अतिथिके भक्षणके लिए गाय, बैल अथवा वकरा देवे ।
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आज भी धर्मके नामपर कैसी भीषण हिसा होती है, इसका अत्यन्त दुखद वर्णन इन पक्तियोसे ज्ञात होता है, "मद्रास प्रान्तके बहुमल पेठ ग्राम का ता० २१ जुलाई स० १६४६ का समाचार है, कि एक पिताने अपने 'पाच वर्षके वालकका सिर हथियारसे इसलिए काट लिया, कि उसे पूर्व रात्रिको यह स्वप्न आया था, जिसमें उसे दैवी शक्तिने बलि देने को कहा था, यह घटना कालुकरा ग्राममे हुई । ( वेंकटेश्वर समाचार २६-७-४६ ५. २ )
इस प्रसगमे इतना उल्लेख और आवश्यक है कि जहा वाल्मीकिके आश्रममें वसिष्ठके लिए गो-मास खिलानेका वर्णन है, वहा राजर्षि जनक को मास-रहित मधुपर्कका उल्लेख है । इसीलिए भाण्डायन कहता हैनिवृत्त-मांसस्तु तत्रभवान् जनक:' ( पृ० १०५ -७ ) । वैदिक वाङ्मयका परिशीलन करनेपर विदित होता है, कि पुरातन भारतमे हिंसा और अहिंसाकी दो विचारधाराएं शुक्लपक्ष - कृष्णपक्षके समान विद्यमान थी । प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० मद्रास तो इस निष्कर्षपर पहुँचे है कि अहिंसाकी विचारधारा उत्तर कालमे जैन कहे जानेवालो द्वारा प्रवर्तित, अनुप्राणित एवं समर्थित थी । ब्राह्मण और