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जैनशासन
उस प्राथमिक साधककी जीवनचर्या इतनी सयत हो जाती है, कि वह लोक तथा समाजके लिए भार न वन, भूपण-स्वरूप होता है। वह सूक्ष्म दोषोका परित्याग तो नही कर पाता किन्तु राज अथवा समाज द्वारा दण्डनीय स्थूल पापोसे वचता है। अपने तत्त्वज्ञानके आदर्शको नवस्मृति और नव-स्फूर्ति निमित्त वह जिनेन्द्र भगवान्की पूजा (Hero worship ) करता है । वह मूर्तिके अवलम्बनसे उस शान्ति, पूर्णता और पवित्रताके आदर्शको स्मरण कर अपने जीवनको उज्ज्वल बनानेका प्रयत्न करता है। उसकी पूजा मूर्ति ( Idol ) की नहीं, आदर्शकी, ( Ideal ) पूजा रहती है, इसलिए मूर्तिपूजाके दोष उस साधकके उज्ज्वल मार्गमे बाधा नही पहुंचाते। जब परमात्मा ज्ञान, आनन्द और शान्तिसे परिपूर्ण है, राग, द्वेष, मोहसे परिमुक्त है, तब उसे प्रसन्न करनेके लिए स्तुति गान करना, ज्ञानवानका काम नहीं कहा जा सकता। वैज्ञानिक साधककी दृष्टि यह रहती है -
"राग नाश करनेसे भगवन्, गुण कीर्तनमें है क्या आश। क्रोध कषाय वमन करनेसे, निन्दामें भी विफल प्रयास ॥ फिर भी तेरे पुण्य गुणोका, चिन्तन है रोधक जग-त्रास। कारण ऐसी मनोवृत्तिसे, पाप-पुञ्जका होता ह्रास॥"
अपने दैनिक जीवनमे लगे हुए दोषोकी शुद्धिके लिए वह सत्पात्रोको सदा आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभयदान देकर अपनेको कृतार्थ मानता है। उसका विश्वास है कि पवित्र कार्योके करनेसे सम्पत्तिका नाश नही होता, किन्तु पुण्यके क्षयसे ही उसका विनाश होता है। आचार्य पद्मनदि कहते है
"पुण्यक्षयान् क्षयमुपैति न दीयमाना
लक्ष्मीरतः कुरुत सन्ततपात्रदानम्।" वह उसी द्रव्यको सार्थक मानता है जो परोपकारमे लगता है। सक्षेपमे साधकके गुणोका सकलन करते हुए पंडित प्राशावरजी कहते है