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जैनशासन
महाराज दशरथने मुझे सम्पूर्ण दण्डक - वनका राज्य दिया है। इस मोही मानवकी सम्यक्ज्ञानके प्रभावसे कैसी विलक्षण वीतरागतापूर्ण पवित्र मनोवृत्ति हो जाती है !
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नरकमे शारीरिक दृष्टिसे वह अवर्णनीय यातनाओको भोगता है, यह कौन न कहेगा ? किन्तु प्रवृद्ध कवि दौलतरामजी अपने एक पदमे कहते हैं
" बाहर नारक कृत दुख भोगत, अन्तर समरस गटागटी । रमत अनेक सुरनि सँग पै तिस, परनतिसे नित हटाहटी ॥"
इस आत्मसाधनाका प्राण निर्भीकता है । जिसे इस लोक, परलोक, मरण आदिकी चिन्ता सताती है, वह साधनाके मार्गमे नही चल सकता । इसीलिए महपियोने प्रत्येक प्रकारके भयसे साधकको विमुक्त बताया है। गीताके गब्दोमे तो ऐसे आत्म-दर्शीके हृदयमे यह दृढ़ विश्वास जमा रहता है
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापः न शोषयति मारुतः ॥ " २।२३ ।
इस आत्माको शस्त्र छेद नही सकते, अग्नि इसे जला नही सकती, जल गीला नही करता और न पवन ही इसे सुखाता है ।
आत्म-शक्ति अथवा आत्माके गुणोके विषयमे यथार्थ विश्वास ( सम्यक दर्शन ) और सत्यज्ञानके समान सम्यक्चारित्रकी भी अनिवार्य आवश्यकता है। साघनाकी भूमिकारूप विशुद्ध श्रद्धा की आवश्यकता है । यथार्थबोध भी निर्वाणके लिए महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार साधनाके लिए शील, सदाचार, सयम आदिका जीवन भी अपना असाधारण महत्त्व रखता है। विशुद्ध आचरणकी ओर प्रवृत्ति हुए बिना आत्मशक्ति और विभूतिकी चर्चा काल्पनिक लड्डू उडाने जैसी बात है । मन - मोदकसे भूख दूर न होगी। सम्यक्चारित्रके द्वारा जीवनमे लगी हुई अनादि - कालीन कालिमाको निकालकर उसे निर्मल बनाना होगा । आजका भोग - प्रधान
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