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जैनशासन
कारण दीन-हीन वनता है । उसकी अवस्था बनारसीदासजी के शब्दो मे बबरुले पत्ते -जैसी हो जाती है
"फिर डांवाडोल सो, करमकी कलोलनिमें,
ह्वै रही अवस्था बवरूले जैसे पातको ।" प्रकृतिभक्त कवि बर्ड् सवर्थकी निम्न पक्तिया इस प्रसगमे उद्बोधक प्रतीत होती है
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"The world is too much with us; late and soon, Getting and spending, we lay waste our powers Little we see in Nature that is ours; We have given our hearts away, a sordid boon ?
अर्थात्-हम सासारिकतामे आकण्ठ मग्न है । व्यापार आदिके लेनदेनके हेतु हम प्रात शीघ्र ही उठते है और रात्रिमे देरसे सोते है । इस प्रकार हम अपनी शक्तिको नष्ट कर रहे हैं । हमे 'प्रकृति' के लिए कुछ भी चिन्ता नही है, यद्यपि वह हमारी स्वयकी वस्तु है । हमने हृदयको कही दूसरी जगह फँसा रखा है। वास्तवमे यह मलिन वरदान बन गया है ।
कैसी विचित्र बात है कि यह आत्मा अनन्त अनात्मपदार्थोकी ओर चक्कर मारने अथवा दौडधूप करनेके वैभाविक कार्यको स्वाभाविक मानता है और साधनाके सच्चे मार्गरूप अपने स्वरूपकी उपलब्धिको भार रूप अनुभव करता है । स्वामी कुन्दकुन्द महाराज बताते है - "सुदपरिचिवाणूभूदा सव्वस्सवि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलभी विहत्तस्स ॥४॥" -
- समयसार
काम और भोग सम्बन्धी कथा इस जीवने अनन्त बार सुनी, उसका अनन्त बार परिचय पाया और अनन्त बार अनुभव भी किया। यह जीव, अमृतचद्राचार्य के शब्दोमे 'महता मोहग्रहेण गोरिव वाह्यमानस्य' बलवान् मोहरूपी पिशाचसे बैलके सदृश जोता गया है । इसलिए काम-भोग सम्बन्धी
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