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आत्म-जागरणके पथपर
वल, वैभव, सन्मान, शरीर, तपस्या आदिके कारण अभिमान नहीं करता, क्योकि उसकी तत्त्व-ज्ञान ज्योतिमे सब आत्माएँ समान प्रतिभासित होती है।
वह गुणवान्का असाधारण आदर करता है। तात्त्विक दृष्टिसम्पन्न चाण्डाल तो क्या, पशु तकका वह देवतासे अधिक सम्मान करता है; क्योकि शरीर अथवा बाझ वैभवके मध्यमे विद्यमान जीवपर अपने तत्त्वज्ञानकी ऐक्स-रे नामक किरणोको डालकर वह सम्यक्-वोधरूपी गुणको जानता है और बाह्य सौदर्य या वैभवके द्वारा विमुग्ध नही बनता । अपनी पवित्र श्रद्धाकी रक्षाके लिए भय, प्रेम, लालच अथवा आगायुक्त हो स्वप्न मे भी रागी-द्वेषी देव, हिंसादिके पोषक शस्त्ररूप शास्त्रो तथा पापमय प्रवृत्ति करनेवाले पाखडी तपस्वियोको प्रणाम, अनुनय विनय आदि नही करता। सर्वन, वीतराग, हितोपदेशी प्रभुकी वाणीमे उसे अटल श्रद्धा रहती है। ससारके भोगोको कर्मोके अधीन, नश्वर, दुखमिश्रित और पापका बीज जान वह उनकी आकाक्षा नही करता। आत्मत्वकी उपलब्धिको देवेन्द्र या चक्रवर्ती आदिके वैभवसे अधिक मूल्यको आकता है । वह शरीरके सौदर्यपर मुग्ध नहीं होता, कारण कविवर दौलतरामजीकी भाषामे शरीरको
"पल रुधिर राधमल थैली। कीकस वसादि तै मैलो।" समझता है । और, जानता है कि यह यथार्थमे कैसी है
"मत कोज्यौ जी यारी, घिनगेह देह जड़ जानके, मात-तात रज-वीरज सौ यह, उपजी मल-फुलवारी। अस्थि, माल, पल, नसा-जालकी, लाल-लाल जल क्यारी॥मत०॥ कर्म-कुरंग थली-पुतली यह, मूत्र-पुरीष भंडारी। चर्म-मढ़ी रिपुकर्म-धड़ी, धन-धर्म चुरावन हारी॥मत०॥ जे जे पावन वस्तु जगतमें, ते इन सर्व विगारी। स्वेद, मेद, कफ प्लेदमयी बहु मद गद व्याल पिटारी॥मत०॥ जा संयोग रोग भव तौलौं, जा वियोग शिवकारी। बुध तासौं न ममत्व करै-यह मूढ़-मतिन को प्यारी ॥ मत०॥