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जैनशासन
का आत्मा सर्वप्रकार समर्थ एव परितुष्ट था इसलिए उसने मकडीकी तरह अपना जाल बुनकर और उसीमे फंस जीवन गमानेकी चेप्टा न की, किन्तु सम्पूर्ण विकारोपर विजय पा परिपूर्ण आत्मत्वको पानेके लिए दुर्वलताओके वर्धक सकीर्ण गृहवासको तिलाजलि दे दिगम्बरमुद्रा धारण कर आत्मसाधनानिमित्त अन्त बहि सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्यका प्रशस्त पथ स्वीकार किया; और अपनी सच्ची और सुदृढ साधनाके फलस्वरूप उन्होने कर्म-राशिको चूर्ण कर अनन्त-आनन्द, अनन्तज्ञान, अनन्त-शक्ति, अविनाशी जीवन आदि अनुपम विभूतियो का अधिपतित्व प्राप्त किया। लेकिन एकदम महावीर बननेके कठिन और लोकोत्तर मार्गपर चलनेकी क्षमता मोही और विषयोमे फंसे हुए वासनाओके दासोमे कहा है ? जो आत्मा कर्मशत्रुओका हस्तक बन अपने आत्मत्वको भूल महाकवि बनारसीदासजीके शब्दोमे-"ब्रह्मघाती मिथ्याती महापातकी" के नामसे पुकारा जाता है, वह भला कैसे आत्मजागरणके उज्ज्वल पथपर एकदम चल सकता है ?
रोगाक्रान्त नेत्र जिस प्रकार प्रकाशको देख पीडाका अनुभव करते हुए आखोको मीच अधेका अनुकरण कराते है, इसी प्रकार मोह-रोगसे पीडित अविवेकी प्राणी विषय-भोगकी लालसासे आकर्षित हो सम्यक्ज्ञानके प्रकाशपूर्ण जीवनके महत्त्वको भुला भोगी और विषयासक्तकी जिन्दगीको ही अपने जीवनका आदि तथा चरम लक्ष्य समझता है।
सत-समागम, पवित्र ग्रथोका अनुशीलन और सुदैवसे आत्मनिर्मलताके योग्य सुदिनके आनेपर किसी सौभाग्यशालीकी मोहाधकारनिमग्न आत्मामे निर्मल ज्ञान-सूर्यके उदयको सूचित करनेवाली विवेकरश्मिया अपने पुण्य प्रकाशको पहुँचा जीवनको आलोकित करने लगती है। उस समय वह आत्मा निर्वाणसुखके लिए लालायित हो अपना सर्वस्व माने जानेवाले धन-वैभव आदि परिकरको क्षण-भरमे छोडनेको उद्यत हो जाता है। ऐसा ही प्रकाश जैन-सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्यको ब्रह्मर्षि श्रुत