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आत्म- जागरण के पथपर
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का वास्तविक रूप समझने और विचार करनेसे यह आत्मा भूमसे बचकर कल्याणकी ओर प्रगति करता है ।
इस विश्वके वास्तविक स्वरूपका विचार करते-करते आत्मा विषयभोगोसे विरक्त हो विलक्षण प्रकाशयुक्त दिव्य जीवनकी ओर झुकता है । देखिए, एक कवि कितने उद्बोधक शब्दोसे मानव आकृतिधारी इस लोक और उसके द्रव्योका विचार करता हुआ आत्मोन्मुख होनेकी प्रेरणा करता है
लोक श्रलोक प्रकाश माहि थिर, निराधार जानो । पुरुष रूप कर कटी भये षद्रव्यन सो मानो ॥ इसका कोई न करता, हरता श्रमिट श्रनादी है | जीव रु पुदगल नाचे यामे, कर्म उपाधी है। पाप-पुन्य सो जीव जगत में, नित सुख दुख अपनी करनी आप भर सिर औरन के मोह कर्मको नाश, मेटकर सब जगकी निज पदमें थिर होय, लोकके सीस करो - कविवर मंगतराय - बारह भावना
भरता ।
धरता ॥
आसा ।
वासा ॥
श्रात्म जागरण के पथपर
इस विश्वकी वास्तविकतासे सुपरिचित मानव गम्भीर चिन्तनामे निमग्न हो सोचता है, जव मेरा आत्मा जड- पुद्गल - आकाग आदिसे गुण-स्वभाव आदिकी अपेक्षा पूर्णतया पृथक् है तब अपने स्वरूपकी उपलब्धिनिमित्त क्यो न में समस्त सासारिक मोहजालका परित्याग कर परम निर्वाणके लिए प्रयत्न करूँ ? भगवान् महावीरके समक्ष भी ऐसा ही प्रश्न था, जब तारुण्य - श्रीसे उनका शरीर अलकृत था और उनके पिता महाराज सिद्धार्थ उनसे विवाह - वन्धनको स्वीकार कर राजकीय भोगोकी ओर उनकी चित्तवृत्तिको खीचनेके प्रयत्नमे तत्पर थे । भगवान् महावीर
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