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परशुराम का वृतान्त |
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रखा, अब परशुराम का क्षत्रिय जाति वालों से ऐसा द्वेष वधा कि जहां क्षत्रिय होय उहां ही परशुराम का परशु जाज्वल्यमान होजावे, उन क्षत्रियों का मस्तक परशु से छेद डाले, ऐसे निचत्रणी पृथ्वी करता परशुराम एक दिन उसी वन में आ पहुंचा, जहां कि तापसाश्रम में पुत्र युक्त वह राणी पी, परशु चमकने लगा, तब परशुराम बोला, इहां कोई क्षत्रिय है, उसको जल्दी बतावो तब दयावंत तापस बोले, हे राम ! हम पहिले गृहस्थपणे जात के चत्रिय थे, तदपीछे राम ने उहां से निकल ७ चैर निःक्षत्रणी पृथ्वी हरी, तब कातर क्षत्रिय लोक ब्राह्मण बणने को गले में यज्ञोपवीत डाली, अब परशुराम प्रसिद्ध २ चत्रिय राजाओं को मार २ के उनकी दाढाओं से एक पड़ा थाल भरा, आप निश्चिंत एक छत्र राज्य करने लगा, जगे २ ब्राह्मणों को राज्य दिया, एक दिन एक निमत्तक से प्रच्छन्न पूछा, मेरी मृत्यु स्वभाव जन्य है, या किसी के हाथ से, तब निमित्तिये ने कहा, जो आपने क्षत्रियों की दादाओं से थाल भरा है, वह थाल की दाई, जिसकी दृष्टि से खीर न जायगी और उस खीर को सिंहासन पर बैठ के खावेगा उसी के हाथ तुमारी मृत्यु हैं, यह सुन परशुराम ने दानशाला बनवाई, उस के आगे एक सिंहासन, उसके ऊपर वह दादों का थाल रखा, उसकी रक्षा वास्ते नंगी तलवारवाले पुरुष खड़े किये, अब इधर वैताढ्य पर्वत का राजा मेघ नामा विद्याधर किसी निमित्तिये को पूछने लगा, मेरी जो पद्म श्री कन्या है, उस का बर कौन होगा, तब निमित्तिये ने कहा, सुभूम तेरे वहिन का पुत्र, जो इस वक्त तापस के आश्रम में है, वह होगा, और वह छः खंडाधिपति चक्रवर्त्ती भी होगा ।
तब मेघ विद्याधर उहां पहुंच के सुभूम को बेटी ब्याही, उसका सेवक बनगया, एक दिन सुभूम अपणी माता को पूछने लगा, हे माता, क्या इतना ही लोक है, जिसमें अपणे रहते हैं, तब माता ने कहा, लोक तो इस से अनंत गुण है, उस में एक राई मात्र जगे में अपणे रहते हैं, इह 'लोक में प्रसिद्ध हस्तिनापुरं नगर, उहां का राजा कृतवीर्य का तूं पुत्र है, · पूर्वव्यवस्था सब कह सुनाई, सुनते ही मंगल के तारे की तरह लाज्ञ होकर
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