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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय)।
६७ सेतज, ६८ वत्स, १६ अंगदेव, १०० नरोत्तम ।
इस अवसर में जीवों के कपाय प्रवल होने लगा, अन्याय बढ़ने लगा, तब हकारादि तीनों अक्षरों का दंड लोक कम करने लगे, इस अवसर में लोकों ने सर्व से अधिक ज्ञान गुणों कर के संयुक्त श्री ऋषभदेवजी को देख युगलक सब कहने लगे हे ऋषभदेव ! लोकदंड का भय नहीं करते, ऋषभदेव गर्भ में भी मति १, श्रुति २, अवधि ३, तीन ज्ञान करके संयुक्त थे, ऋषभदेवजी के पूर्व भव का वृत्तांत आवश्यक सूत्र तथा प्रयमानुयोगसे जानना । तव श्री ऋषभदेव युगलों से कहने लगे राजा होता है वह यथा योग्य अपराधी को दंड देता है। उसके मंत्री, कोटपालादिक, चतुरंगणी सेना होती है, उसकी आज्ञा अनतिक्रमणीय होती है, राजा कृताभिषेक होता है उसके नगर वा, अस्त्र, शस्त्र, कारागारादि अनेक राज्य शासन का प्रबंध होता है इत्यादि वचन सुन वह युगतक वोले, ऐसे राजा हमारे आप होजाओ। तब ऋषभदेव ने कहा तुम सव राजा नाभि से अरज और याचना करो तब उन्होंने वैसा ही किया, तब नाभि ने श्राज्ञा दी आज से ऋषभ देव तुम्हारां राजा भया, तब वे युगलक ऋषभदेवको गंगा के तट पर रेणु पुंज बना के अभिषेक करने जल लाने को पानी सरोवर में गये, इस अवसर में इन्द्र का आसन कंपमान भया अवधि ज्ञान से प्रभु के राज्याभिषेक का समय जाण प्रभु पास आया, जो कुछ राजा के योग्य छत्र, चामर, सिंहास-- नादि सामग्री होती है वह सब रचे, मुकुट, कुंडल, हारादि आमरण, देव, दुष्यादि वस्त्र पहनाये और राज्याभिषेक किया, वह विधि इन्द्र दार्शित, राज्याभिषेक की प्रचलित भई, तदनंतर वह युगलक पद्मणी पत्रों में जल भर २ के लाये, ऋषभ को आभरण तथा वस्त्रों से अलंकृत देख सबोंने चरणों पर वह जल डाल दिया। तब इन्द्र ने विचार किया ये सब विनीत हैं, इनके वसने को वैश्रमणं को आज्ञा दी, विनीता नगरी वसाओ, तब. 3श्रमण ने नगरी वसाई, इसका स्वरूप शत्रुजय महात्म ग्रन्थ से जानना। . अब ऋपमदेव उपयोगार्थ बनमें से हस्ती, घोड़े, ऊंट, गऊआदिकजीवों को पकड़ मंगा के उपभोगलायक करे, अब प्रभु प्रजा. की वृद्धि करने को