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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) ।
दिशा में महा शैन्य, पश्चिम दिशा में सुर शैल्य तथा उत्तर दिशि में उदयाचल पर्वत है, क्योंकि बहुत से जैन शास्त्रों में लेख है अष्टापद पर ऋषभ प्रभु समवसरे अयोध्या से भरत वंदन करने गया, ये अयोध्या अपर नाम साकेतपुर जो लखनेउ (लक्ष्मण) पुर के पास है इहां से कैलाश बहुत ही दूरवर्ती है। हरवख्त त्वरित जाना कैसे सिद्ध होसके इस वास्ते विनीता (अयोध्या) पूर्वोक्त ही संभावना है। उस ७ में नामि कुलकर की भार्या मरुदेवा की कूख में आषाढ बदि चौथ की रात्रि को सर्वार्थ सिद्ध देव लोक से च्यव के ऋषभदेव का जीन गर्भ में पुत्रपने उत्पन्न भये, मरु देवी ने १४ स्वप्न देखे, इन्द्र महाराज ने खप्न फल कहा, चैत्र बदि अष्टमी को जन्म हुआ, छप्पन दिक्कुमारियों ने सूतिका का कर्म किया, ६४ ही इन्द्रों ने मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक का महोत्सव किया। मरुदेवी ने १४ स्वप्न में प्रथम वृषभ देखा था तथा पुत्र के दोनों जंघाओं में भी वृषभ का चिन्ह था इस हेतु ऋषभ नाम दिया। वाल्यावस्था में जब ऋषभदेव को भूख लगती थी तब अपने हाथ का अंगूठा चूसते थे । इन्द्र ने अंगूठे में अमृत संचार कर दिया था, सर्व तीर्थकरों की ये मर्यादा है। जब बड़े भये तब देवता ऋषभदेव को कल्पवृक्षों के फल लाकर देते थे, वह खाते थे, जत्र कुछ कम एक वर्ष के भये तव इन्द्र अपने हाथ में इक्षु दंड लेकर आया उस समय ऋषभदेव नामि राजा के उत्संग में बैठे थे, तब इन्द्र बोला हे भगवन् ! "इक्षु अकु" अर्थात् इक्षु भक्षण करोगे, तत्र ऋषभदेव ने हाथ पसार इतु दंड छीन लिया, तब इन्द्रने प्रभु का इक्ष्वाकु वंश स्थापन किया तथा ऋषभदेव के अतिरिक्त अन्य युगलों ने कासका रस पीया इस वास्ते उन सबों का काश्यप गोत्र प्रसिद्ध भया। ऋषभदेव के जिस २ वय में जो जो उचित काम करने का था वह सब इन्द्र ने किया। यह शक इन्द्रों का जीत कल्प है कि अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकरों का सब काम करे।
इस समय एक युगलक लड़का लड़की ताल वृक्ष के नीचे खेलते थे ताल फल गिरने से लडका मर गया, तब उस लडकी को अन्य युगलों ने नाभि कुलकर को सौंपा, नामि ने ऋषभ की भार्या के वास्ते रखली, उसका नाम सुनंदा था, ऋषभ के संग जन्मी उसका नाम सुमंगला था, इन दोनों