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जैनधर्म की प्राचीनता का इतिहास ।
कल्पवृक्ष खल्प होते चले, तत्र युगलक लोक अपने २ कल्पवृक्षों का ममत्व कर लिया, जब दूसरे युगलक दूसरे के कल्पवृक्ष से फलाशा करने लगे तब उन वृक्षों के ममत्वी उन से कलह करने लगे तब सब युगलक लोकों ने ऐसी सम्मति करी, कोई ऐसा होना चाहिये सो हमारे क्लेश का निपटारा करे उस समग उन युगल में से एक युगल मनुष्य को वन के श्वेत हस्ती ने पूर्व भव की प्रीती से अपने स्कंध पर संड से उठाके चढा लिया तब वाकी के युगलों ने विचारा ये हम सबों से बड़ा है, सो हाथी पर आरूड़ फिरता है, इस वास्ते इसको अपणा न्यायाधीश बनाना चाहिये इस के वाक्य शिरोधार्य करना, बस सों ने उसको अपणा स्वामी चनाया, इस हस्ती और युगलक का. पूर्व भव संबंध आवश्यक सूत्र तथा प्रथमानुयोग ऋषभ चरित्र कल्प सूत्र की टीका से जाण लेगा।
पश्चात् उस विमलवाहन ने यथा योग्य कन्मक्षों का विभाग कर दिया, तदनंतर काल दोष से कोई युगल असंतुष्टता गे अन्यों के कल्पवृक्ष से फल ले तब उसका स्वामी उससे क्लेश करे, यह खबर सुनके अन्य युगलों को भेज घिनलाहन पकड मंगाने और कहे हा! यह तुमने क्या किया तद पीछे वह फिर ऐमा अकृत्य नहीं करता था, विमल बाहन ने हा! इस शब्द की दंडनीति चलाई । उसका पुत्र चक्षुष्मान् भया, बाप के पीछे वह राजा भया, हाकार की दंड नीति रक्खी इसका पुत्र यशस्वी, यशस्वी का पुत्र अमिचन्द्र इन दोनों के समय में थोड़े अपराधी को हाकार और बहुत धीठ को माकार का दंड ये काम मत करना । ऐमे अभिचन्द्र का पुत्र प्रश्रेणि कुलकर (राजा) भया, प्रश्रेणि का मरुदेव, मरुदेव का पुत्र नाभि इन तीनों के समय में स्वान्पापगधी को हाकार, मध्यम अप- . राधी को माकार, उत्कृष्ट अपराधी को धिक्कार ऐसे तीन दंड नीति चलती रही। इन्हों का निवास स्थान, इक्षा भूमि साम के मुल्क में काश्मीर के पहले तरफ अब भी अयोध्या नाम से विख्यात नगर है। अयोध्या शब्दका, अपभ्रंश ही अयोदिया होगा, इस अयोध्या विनीता के चारों दिशा में चार पर्वत जैन शास्त्रों में लिखा है, पूर्व दिशि में अष्टापद (कैलाश ) जो कि तिब्बत के मुल्क में बरफान से आच्छादित अधुना विद्यमान है, दक्षिण