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जैनधर्म की प्राचीनता का इतिहास। .
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सांप की बुद्धि से मारने में सांप के प्रहार नहीं लगता, जैनधर्मी जिस बात को मानते ही नहीं तो उस बात का खंडन करना ही निरर्थक भया, जिनों को वेदांती शंकरावतार मानते हैं, उन जैसों को भी जब जैनधर्म के-तत्वों की अनभिज्ञता थी तो आधुनिक गल्ल बजाने वालों की तो वात ही क्या कहणी है, सव बुद्धिमानों से सविनय प्रार्थना करता हूं कि पहले जैनधर्म के तत्वों को अच्छी तरह समझने के अनन्तर पुनः खंडन के तरफ लक्ष्य देणा, नहीं तो पूवोक्त स्वामीवत् हास्यास्पद वणोंगे।
अत्र सज्जनों के ज्ञानार्थ प्रथम इस जगत् का थोड़ा सा स्वरूप दर्साते हैं। इस जगत को जैनी द्रव्यार्थिक नय के मत से शाश्वत प्रवाह रूप मानते हैं। इस में दो काल चक्र, एकेक कालचक्र में कालव्यतिक्रम रूप छः, छः मारे वर्त्तते हैं एक अवसप्पिणी काल वह सर्व अच्छी वस्तु का नाश करते चला जाता है, दूसरा उत्सपिणी काल वह सर्व अच्छी वस्तु का क्रम से वृद्धि करते चला जाता है। प्रत्येक कालचक्र का प्रमाण दश कोटाकोटि सागरोपम का है, एक सागरोपम असंख्यात वर्षों का होता है, इसका स्वरूप जैन शास्त्रों से जान लेना, ऐसे कालचक्र अनंत व्यतीत हो गये और आगे अनंत बीतेंगे, एक के पीछे दूसरा शुरू होता है। अनादि अनंत काल तक यही व्यवस्था रहेगी। अब छहों आरों का कुछ स्वरूप दर्शाते हैं___अवसर्पिणी का प्रथम पारा जिसका नाम सूखम सुखम कहते हैं वह चार कोड़ा कोड़ी सागरोपम प्रमाण है । उस काल में भरत क्षेत्र की पृथ्वी बहुत सुंदर रमणीक ढोलक के तले सध्श समथी, उस काल के मनुष्य तिर्यच भद्रक सरल स्वभाव अल्प राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादिवान् थे, सुंदर रूप निरोग शरीर वाले थे, मनुष्य उस काल के १० जाति के कल्पवृक्षों से अपने खाने पीने पहनने सोने आदि की सर्व सामग्री कर लेते थे, एक लड़का एक लड़की दोनों का युगल जन्मते थे। ४६ दिन संतान हुये के पश्चात् वह मर के देवगति में इहां जितनी आयु थी उतनी ही स्थिति या कम स्थिति की आयु के देव होते थे, इहां से ज्यादा उमर वाले नहीं होते थे, तद पीछे वह संतान का युगल जब यात्रन वंत होते थे, तब इस वर्तमान स्थित्य