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की क्रिया उपदेश द्वारा वतलाई और अशुभ क्रिया अधोगति में लेजाने वाली चतलाई, कर्म बंध से मुक्त होने का मार्ग बतलाया।
इसलिये जब तक जीव के कर्म का आवरण है तब तक ३ साकार ध्यान उन कर्मों के आवरणों को दूर करने के लिये है। पिंडस्थ ध्यान १, पदस्थ ध्यान २, रूपस्थ ध्यान ३, इन से जब निर्मलता चेतन का मूल रूप प्रकटता है, जीवआत्मा परमात्मा हो निज रूप को जानता है और देखता है तब वह रूपातीत चौथा ध्यान कहावा है । इसलिये जैन शास्त्र में आतंबन युक्त ध्यान कहा है, वह (१) शुभ आलंवन (२) अशुभ आलंबन । शुभ आलंवन ध्यान के लिये वीतराग, निर्विकार स्त्री शज्ञादि वर्जित जिन प्रतिमा ध्यानावस्थित मुख्य है । अशुभ आलंवन आर्च ध्यान का हेतु जैसे कोक शास्त्रोक्त चौरासी आसनादि के चित्र, अन्य भी इस प्रकार के आकार का देखना । चित्त का विकार जनक दुर्गति. का कारण रूप है इसलिये सम्यक्त को पुष्टिकारक जिन प्रतिमा है इसलिये स्वर्गादि देवताओं के विमान तथा भवनों में तैसे तिरछे लोक के शाश्वत पहाड़ों पर सिद्ध भगवान की प्रतिमा की स्थापना शाश्वत विद्यमान ही है ऐसा भगवती जीवाभिगम रायप्रवेणी जम्बुद्वीपं पन्नती आदि जिनागमो में लिखा है, उन सिद्ध मूर्ति विराजित स्थान को.पूर्वोक्त सूत्रों में सिद्धायतन (सिद्धगृह) नाम से केवली तीर्थंकर भगवान् ने फरमाया है । जीवाभिगम सूत्र में विजय नाम के इन्द्र के पोलिये के जिन प्रतिमा के द्रव्य भाव पूजा करने के अधिकार में जिन प्रतिमा को जिनवर केवली भगवान् ने फरमाया है, इस ही प्रकार रायप्रसेणी सूत्र में सूर्याभ देव के निन प्रतिमा के पूजा करने के अधिकार में जिन प्रतिमा को जिनवर कहा है, इत्यादि केवली तीर्थकर के वचन से जिन प्रतिमा जिन सदृश्य सम्यक्ती जीव मानते पूजते अनादि प्रवाह से चले आये, फल की प्राप्ति भाव (इरादे) के अनुसार होती है, सिद्ध परमात्मा में गुण ठाण नहीं इस लिये सिद्ध की थापना प्रतिमा में भी गुण ठाणा नहीं है । देवचंद्रजी न्याय चक्रवर्ती जैन साधु विक्रम राजा के सतरे शताब्दी से अठारेसे दश वर्ष में होगये । उन्हों ने स्वरचित चौवीसी के शाति १६ में प्रभु के स्तवन में तीर्थकर की आज्ञानुसार जिन प्रतिमाजिन सदृश है। प्रतिमा पर सप्तनय सिद्ध कर दिखाया है और जो सप्तनय सिद्ध है वह सर्वथा जैनधर्मी सम्यक्ती को मानने योग्य है । मिथ्यात्वके ३ कृत्यहै (१) कुगुरु (२) कूदेव (३)कुधर्म