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________________ ( ६३ ) सदा बनी रहे, उसको द्रव्य कहते है । सन् उसे कहते हैं जिसमें एक ही समय में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य पाये जा-अर्थात् जिस में पिछलो अवस्था का नाश होकर नई अवस्था जन्मे, तो भी मूल द्रव्य बनी रहे । जैसे स्वर्ण का कड़ा तोड़ कर कुण्डल बनाया. इस में कड़े की अवस्था का नाश होकर ही कुण्डल जन्मा है, परन्तु स्वर्ण बना ही रहा । अथवा जैसे कोई बालक युवा हुआ: यहाँ बालक अवस्था का व्यय, युवा अवस्था का जन्म नथा ध्रौव्य वह मनुष्य जीव है। एक चने के दाने को जिस समय मसल कर चूरा जाता है, उसी समय चनेपन का नाश, चूरेपन का जन्म होता है व जो परमाणु चने के थे वे उसके आटे में मौजूद हैं। हरएक द्रव्य द्रवणशील है, परिणमन शील है--अर्थात् अवस्थाओं को बदलता है । जिस मे अवस्था नहीं बदले, वह द्रव्य किसी कामको नहीं कर सकता। यदि जीव कूटस्थ नित्य हो नो अशुद्ध से कभी शुद्ध नही हो सकता व यदि परमाणु कूटस्थनित्य हो तो उससे मिट्टी, पानी, हवा, वनस्पति आदि नहीं बन सकते। यदि अवस्था बदलते हुए मूल वस्तु नष्ट हो जावे तो कोई भी वस्तु नही ठहर सके। इस कारण द्रव्य को गुणपर्यायवान् भी कहते हैं। गुण द्रव्यकं भीतर व्यापक उसके साथ सदापाये जाते हैं। उन्ही गुणों में जो अवस्थायें बदलती हैं उनको पर्याय
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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