________________
( ६२ )
ध के कारण चार विदिशाओं को छोड कर ऊपर नीचे, र्व पश्चिम, दक्षिण उत्तर, ६ दिशाओं में अपनी २ गति में आते है - टेढ़े नहीं जाते है । मरण के पीछे दूसरे शरीरमें जाते पढ़े नही जाते, सीधे ही जाते है। तीन दफ़े से अधिक 'हीं मुड़ते । 4
ये जीव अनन्तानन्व है। हर एक जीव की सत्ता यानी ौजूदगी भिन्न २ रहती है। कोई किसी को खराड नहीं है, न कोई किसी से मिलता है । जीवों के दो भेद है-संसारी और उक्त दोनों ही अनेक है *
जैन सिद्धान्त में जीव भी एक द्रव्य है ।
२३. द्रव्य का स्वरूप
जो सत् हो अर्थात् जिसकी सत्ता अर्थात् मौजूदगी
+ नौ विशेषणों की गाथा
जीवो वो गमश्री श्रमुत्ति कसा सदेह परिमाणां । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्स सोडूगई ॥ २ ॥ जारादि पस्सदि सम्वं इच्छदि सुक्खं विभेदि दुक्खादो। कुम्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ॥ १२२ ॥ ( द्रव्य संग्रह, पंचास्तिकाय )
भावार्थ - यह जीव सर्व पदार्थों को देखता जानता है। हि संसारी जीव सुख चाहता है, दुःखों से डरता है, अपना स्वयं भला या बुरा करता है व स्वयं उन का फल गता है।
* संसारिणी मुक्ताश्च ॥ १० ॥ ( तत्वा० सू० श्र० २ )