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( ५५ ) भी सदा से है, कोई नवीन कल्पना नहीं है । सं०६१ में प्रसिद्ध श्री उमास्वामी महाराज ने लोक व्यवहार के लिये स्थापना को “नाम स्थापना द्रव्य भाव तस्तन्न्यासः" (तत्वार्थ सूत्र १ सूत्र ५) इस सूत्र से स्वीकार किया है। संवत् लेख रहित प्राचीन जैन मूर्तियां भूमि से निकला करती हैं । मथुरा से पहिली शताब्दी से पहिले की दिगम्बर जैन मूर्तियाँ मथुराव लखनऊ के अजायबघर में है। खंडगिरि उदयगिरि (उड़ीसा) की हाथी गुफा सन् १५० वर्ष पहिले के जैन राजा खारवेल या मेघवाहन द्वारा अङ्कित लेख है। उसकी १२ वी व तेरहवीं लाइन में है कि राजानं मगध देशके नन्द गजासे ऋषमदेव. जैनियों के प्रथम तीर्थङ्कर की मूर्ति को ला कर अपने बनाये मन्दिर में स्थापित किया। * इससे यह सिद्ध है कि इस के पहिले से ऋषभदेव की प्रतिमा बनती थी । बङ्गाल बिहार में अनेक स्थानों में हजारों वर्ष की प्राचीन टि० जैन मूर्तियाँ मिलती हैं । स्वरूप के ज्ञान के लिए ऐसी सहकारी वस्तु का होना किसी विशेष काल में कल्पित नहीं है।
२१. सात तत्व व उनकी संख्या
का महत्व
___ जो सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा कर के भक्ति करता है, उस को शास्त्रों के द्वारा सात तत्वों को जानकर श्रद्धान करना आवश्यक है, क्योंकि इनके द्वारा निश्चय प्रात्मरुचि मई
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* बङ्गाल विहार उड़ीसा प्राचीन स्मारक पृ० १३८