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(५३) अरहन्त साक्षात् मिले तो हमें उन की सेवा में पूजा करनी चाहिये । यदि वह नहीं मिले तो उन की वैसीही ध्यानाकार मूर्ति स्थापित कर उस मूर्तिके द्वारा परमात्माकी भक्ति करनी चाहिये । हमारे भावों में जैसा असर साक्षात् अरहन्त के ध्यानमय वीतराग शरीर के दर्शन से होगा, वैसाही असर उनकी ध्यानमय प्रतिष्ठित वीतराग मूर्ति के दर्शन से होगा । वास्तव में ध्यान कैसा होता है व ध्यान के समय शान्ति कैसी होती है, इसको साक्षात् वताने वाली जैन लोगोंकी वस्त्राभरण रहित शांत मूर्ति है। जैसे जलादि द्रव्य भेट देना,भावों की उज्वलता में कारण है, वैसे यह मूर्ति भी साधक है।
* इत्यपृच्छदसौ चाह सत्यमिति वचस्तदा। शृणु राजन् ! जिनेन्द्रस्य चैत्यं चैत्यालयादिवा ॥ १ ॥ भवत्य चेतनं किंतु भव्यानां पुण्य बन्धने । परिणाम समुत्पत्ति हेतुत्वात्कारणं भवेत् ॥ ४ ॥ रागादि दोष हीनत्वादायुधा भरणादि कात् । विमुख्यस्य प्रसन्नेन्दु कांति हासि मुखश्रियः ॥ ५० ॥ अपतिताक्षसूत्रस्य लोका लोक विलोकिनः । कृतार्थत्वात्परित्यक्तजटादेः परमात्मनः ॥५१॥ जिनेन्द्रल्यालयांस्तस्य प्रतिमाश्चप्रपश्यतां । भवेच्छुभाभिसंधानप्रकर्षों नान्यतस्तथा ॥ ५२॥ कारण द्वय सान्निध्यात्सर्व कार्य समुद्भवः । तस्मात्तत्साधु विज्ञयं पुण्य कारण कारणम् ॥ १३ ॥
[उत्तरपुराण पर्व ७३ ] भावार्थ-प्रतिमा सम्बन्धी प्रश्न करने पर मुनि कहने लगे हे आनन्दराजा! यद्यपि यह जिनेन्द्रकी प्रतिमा व मंदिर
विमुख्यस्य मानवादायुधार भवेत् ॥ ११,