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( ५२ ) यद्यपि पूजा की सामग्री धोने में कुछ प्रारम्म करना होता है, परन्तु इस प्रारम्भ का गृहस्थी त्यागी नहीं है। इस प्रारम्भ के दोष के मुकाबले में भावों की निर्मलता बहुत गुणी होती है । जैसे किसी गाने वाले का मन बाजे की सुरताल की सहायता से लगता है, तब वाजों को बजाने का प्रारम्भ गानविद्या में मन लगने की अपेक्षा बहुत कम है।
१६. मूर्तिस्थापन का हेतु ।
जो गृहस्थ देव-पूजा करें और जिस की पूजा करें उस की उपस्थिति न हो तो पूजा में उचिनभाव नही लग सकता। भक्ति बिना भक्ति योग्य वस्तु ( Object of devotion) के भीतर ले उमड़ती नहीं है । यदि जीवन्मुक्त परमात्मा या
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त वैरे। तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिनः पुनातु चित्तं दुरितांजनेभ्यः ॥१७॥ पूज्य जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषायनालं कणिका विषस्य नदूषिका शीत शिवाम्बुराशौ॥५॥
[स्वयम्भूस्तोत्र ] भावार्थ-श्राप वीतराग है,आपको हमारी पूजासे कोई अर्थ [प्रयोजन नही है । हे नाथ ! आप वैर रहित हैं इस से हमारी निन्दा से आप में द्वेष नही हो सकता, तो भी आपके पवित्र गुणों का स्मरण हमारे मनको पापरूपी मैल से साफ कर देता है । जो पूजने योग्य जिनेन्द्र की पूजा द्रव्य द्वारा करता है उसका अल्प प्रारम्भी दोष बहुत पुण्यके बंध होने की अपेक्षा बहुत ही अल्प है-हानिकर नहीं है जिस तरह विष की एक कणी क्षीर समुद्र के जलको विषमय नहीं कर सकती।
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