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श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो श्राचाराङ्ग नामके श्रंग है त्रे मूल नहीं हैं। उन की रचना श्रीयुत देवर्द्धिगण ने वीर सं० ६०० के अनुमान वल्लभीपुर (गुजरात) में की थी । दिगम्बर सम्प्रदाय में जिनवाणी चार भेदों में मिलती है । ( १ ) प्रथमानुयोग - इसमें २४ तीर्थंकरों श्रादि ६३ लाका पुरुषों का इतिहास है ।
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( २ ) करणानुयोग - इस में गणित, ज्योतिष, लोका लोक, जीवों के भाव, कर्म चन्ध के भेद आदि का कथन है । (३) चरणानयोग - इस में गृहस्थों के तथा मुनि के श्राचरण का वर्णन है ।
(४) द्रव्यानुयोग - इस में छः द्रव्य, सात तत्व श्रादि का कथन है ।
ये ही जैनियों के चार वेद हैं । ( देखो श्री " वृहत् जैन शब्दाव" भाग १, पृष्ठ १२१ कालम दूसरा )
अबतक जो ग्रन्थ दि० जैनोंमें मिलते हैं, वे विक्रम सं०४६ प्रसिद्ध श्री कुंदकुंद महाराजकृत पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, ऋष्ट पाहुड़ आदि हैं व उनके शिग्य सं० ८१ में प्रसिद्ध श्री उमास्वामीकृत तत्वार्थसूत्र मोक्ष शास्त्र अति प्राचीन हैं । श्राप्तमीमांसा, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि के कर्ता श्री स्वामी समन्तभद्र व इन दोनों आचार्यों के बचन परम माननीय हैं ।
प्रथमानुयोग के प्रसिद्ध ग्रन्थ श्री जिनसेनाचार्य कृत महापुराण, द्वि०जिनसेन कृत हरिवंश पुराण, रविषेण श्राचायकृत पद्मपुराण आदि हैं ।