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________________ ( ४ ) (१२) दृष्टिपवादाड-इस में ३६३ मतों का निरूपण व खंडन है । पूर्व आदि का कथन है । इस में १०८६८५६००५ जिनवाणीमें ३३ व्यञ्जन, २७ स्वर व४ अयोगवाह (जिह्वा मृतीय, उपध्मानीय अनुस्वार और विसर्ग) इस तरह सर्व ६४ अक्षरों का, असंयोगी,दो संयोगी, तीन संयोगी को श्रादि लेकर ६४ संयोगी तक जोड़नसे कुल अक्षरों का नोड़ ६४ दुओं (६४ ४२) को आपसमें गुणा करनेसे जो आवे उसमें एक कम कर ने से जितने अक्षर हो वे अक्षर १४४६७४४०७३७०६५५१६१५ हैं। एक पद के १६३४८३०७EVE अपुनरुक्त अक्षर है । इस लिये सर्व अक्षरों को भाग करने से कुल पद ११२८३५. ८००५ है । इन ही में १२ अङ्ग बांटे गये हैं। शेष ०१०.१७५ अक्षरों में अगवाह्य उत्तराध्ययन श्रादि १४ प्रकीर्णक है। यह लिखने में नहीं आ सकते हैं। इनकी तो विशिष्ट ज्ञानी को व्युत्पत्ति ही होती है और इसी व्युत्पत्ति के अनुसार अन्तरङ्ग में पाठ भी होजाता है । जैले परीक्षा देने वाले छात्र को उत्तरकापी लिखते समय सर्व पुस्तक की व्युत्पत्ति जिह्वा पर रहती है। लिखित पुस्तकोसे व्युत्पत्ति अत्यधिक है, अपरिमित है, किन्तु इन अङ्गों का अन्श लेकर लाखों शास्त्र रचे जाते हैं, अर्थात् सम्पूर्ण द्वादशाह तो लिखने मे आ नहीं सकताथोडासा लेख्य अन्श ही लिखा जाता है। * यह कथन न्यायाचार्य पं० माणिकचन्दजी द्वारा प्राप्त हुआ है। इन अङ्गो श्रादि की और भी विस्तृत व्याख्या देखने के लिये देखो "श्री वृहत् जैन शब्दार्णव कोष" भाग १, शब्द "श्रङ्ग प्रविर श्रुतबान" व "अङ्ग वाह्य श्रुतज्ञान" पृष्ठ ११६-१३१
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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