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________________ ( ३३ ) तरह से जो निश्चयनय से अपने श्रात्मा के स्वभाव को परमात्मा के समान शुद्ध ज्ञानानंदमय श्रमूर्तीक विकार जानता है और व्यवहारनय से पाप पुण्यमय कर्मों के बन्धन के कारण "मेरा श्रात्मा अशुद्ध है" ऐसा जानता है वही श्रात्मा की शुद्धि का प्रयत्न कर सकता है । इसलिए यह दोनों नय या अपेक्षा ज़रूरी हैं। नाटक में एक ब्राह्मण का पुत्र राजा का पार्ट खेलते हुए व्यवहारनय से अपने को राजा तथा निश्चयनय से अपने को ब्राह्मण जान रहा है, तब ही वह पार्ट होने के पीछे राजपना छोड़ असली ब्राह्मण के समान श्राचरण करने लगता है । १४. प्रमाण, नय और स्याद्वाद जिस ज्ञानसे पदार्थको पूर्ण जाने वह प्रमाण है व जिस ज्ञान से उस के कुछ अन्श को जाने वह नय है । प्रमाण सम्यग्ज्ञान अर्थात् संशय, विपर्यय ( उल्टे ) व श्रध्यवसाय ( बेपरवाही) रहित ज्ञान को कहते हैं, उस के निम्न पांच भेद हैं :-- (१) मतिज्ञान - जो स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और कर्ण तथा मन से सीधा पदार्थ को जाने। जैसे कानसे शब्द सुनना, रसना से रोटी को चखना आदि । (२) श्रुतज्ञान - मतिज्ञानपूर्वक जो जाना है उसके द्वारा श्रन्य पदार्थ को जानना श्रुतज्ञान है। जैसे रोटी शब्द से श्रा की बनी हुई रोटी का ज्ञान । ये दोनों ज्ञान परोक्ष प्रमाण है क्योंकि इन्द्रियों की तथा मन की सहायता से होते है ।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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